‘संज्ञा’
‘संज्ञा’
सुनो,संज्ञा है मेरा निज नाम;
विकल्प है मेरा ही, सर्वनाम;
मेरे गुण को,विशेषण बताये;
व्यक्ति,वस्तु, स्थान मेरे साये;
हर जगह आता, मैं ही काम;
सुनो,संज्ञा है मेरा निज नाम।
जगह -जगह , मैं मचलता हूॅं;
हरेक भाव में , मैं मिलता हूॅं;
एक भाव घृणा, एक है प्यार;
मेरी संख्या है, जग में अपार;
हर जगह मिलता , सरेआम;
सुनो,संज्ञा है मेरा निज नाम।
पांच मुख्य, प्रकार बताता हूॅं;
पहले मैं,जाति रूप आता हूॅं;
पर्वत व नदियां, कहलाता हूॅं;
जब धरूं मैं, व्यक्ति का रूप;
सब कहे मुझको; गंगा, राम;
सुनो,संज्ञा है मेरा निज नाम।
परंतु जब , समूह रूप रहता;
अकेलापन , कभी न सहता;
तब दिखूं,अनेकता में एकता;
सब, मेला या भीड़ में देखता;
यहां, नहीं कभी मुझे आराम;
सुनो,संज्ञा है मेरा निज नाम।
द्रव्य रूप ने,किया ऐसा हाल;
सब समझते; दूध,आटा,दाल;
फिर जब मैं,भाव दिखाता हूॅं;
सुंदरता-संग-बुढ़ापा लाता हूॅं;
इस रूप से,जीवन में संग्राम;
सुनो, संज्ञा है मेरा निज नाम।
वाक्य है , सदा अपना संसार;
क्रिया है मेरा,अनोखा आहार;
सेहत बने, क्रिया विशेषण से;
व्याकरण,चाहे मुझको मन से;
मुझे अपने पे, सदा अभिमान;
सुनो, संज्ञा है मेरा निज नाम।
हर वैयाकरण को मेरा प्रणाम।
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स्वरचित सह मौलिक;
……✍️पंकज कर्ण
……कटिहार(बिहार)।