संघर्ष पथ
इक माटी की सुगन्ध लिए चल रहा हूँ सँघर्ष पथ पर
न जाने कहा फिर रहा हूँ शहरों की। होड़ पर
किंचित किंचित सँवार रहा हूँ शहरों की होड़ पर
क्षण क्षणिक कोस रहा हूँ अपने आडंबर को
धैर्य सा रथ लिए दौड़ रहा रणभूमि के कुरुक्षेत्र में
भावनाओं के सागर में कहा तक तैराकी बनते जाऊ
माटी की खुश्बू लिए सारे जहाँ को लाँघ कर आऊ
छोड़ दिया जहाँ घर डाली संग पाषण पर बैठना
खो देंगे एक दिन माटी की खुश्बू लिए फिरना
घर का दीपक बनकर उभर रहा हूँ आसमा छूने को
इक माटी की खुश्बू लिए बढ़ रहा हूँ सँघर्ष पथ पर।।
स्वलेखन
@ प्रकाश…….