संघर्ष और निर्माण
जो कभी संघर्ष से परिचित नहीं होता..
इतिहास गवाह है।
वह कभी चर्चित ही नहीं होता।
जो कभी संघर्ष से परिचित . . . . . .
कौन जानेगा तुम्हें जब छुपे हुए हो,
घोर अंधेरों में बुझे हुए हो।
न धुंआ है न चिंगारी है,
ऐसा लगता है,
जैसे राख से ढंके हुए हो।
फुंक मारो तो,
उड़ जायेगी, राख की परतें,
ये जिन्दगी है, नहीं है कोई शर्तें।
बांध लो फिर मुठ्ठी,
लगा दो नारा इंकलाब का।
तिल तिल मरने वाला,
कभी हर्षित नहीं होता।
जो कभी संघर्ष से परिचित . . . . . .
शोषण दमन पीड़ित के लिए,
वो गुब्बार कहां गया।
हक अधिकार छीन लेने का,
वो जज्बात कहां गया।
उठाओ अपनी विचारों का गांडीव,
और भेद दो,
हर जुल्म शोषण की आंखें।
उठा लो फिर कलम,
लिख दो गीत इंकलाब का।
बिना क्रांति गीत कलम से
कभी जागृत नहीं होता।
जो कभी संघर्ष से परिचित . . . . . .
हम भी उसूलों के बड़े पक्के हैं,
रणक्षेत्र में योद्धा नहीं कच्चे हैं।
उम्र नहीं,
जोश जज्बा और समर्पण देखो,
क्रांति के सांचे में ढले हुए,
हम वीर सच्चे हैं।
रग रग में दौड़ रहा है लहू,
संघर्ष और निर्माण का।
नहीं सहा है नहीं सहेंगे,
अब बात है आन बान और शान का।
बांध लो फिर कफन,
सर में तेरे इंकलाब का।
आंधी तूफान में जो पला बढ़ा हो,
वो कभी चिंतित नहीं होता।
जो कभी संघर्ष से परिचित . . . . . .
नेताम आर सी