संघर्षों के राहों में हम
संघर्षों के राहों में हम
नदियों को भी मोडेगे,
आंधियों में जलकर
गुरूर हवा का तोड़ेंगे |
एक बार जो ठान लिया
मंजिल अपना मान लिया,
आंखों में तूफ़ान लिया
अब काहाँ रास्ते छोड़ेंगे |
मैं संघर्षों की भट्टी में
तपके निकला लोहा हूं,
पत्थर सा मजबूत हुआ
शीशे क्या मुझको तोड़ेंगे |
परवाह कहाँ इसबात की
कौन बीच रास्ते छोड़ेंगे
ये भी अनुभव सीखा है
अपनों को अपने तोड़ेंगे |
जब हमने ये ठान लिया
क्या वह हमको रोकेंगे
रहा हो कठिन लेकिन
चलना नहीं छोड़ेंगे |
जो चट्टानी राहों को जो
बीच भंवर में मोडेगें ,
इस धरती व अंबर पर
क्या नाम निसा छोड़ेंगे |
✍कवि दीपक सरल