“संक्रमण काल”
यह मिल कर आपदा को खत्म करने की लड़ाई है,
मानव पर संकट बन कोरोना वायरस आई है ।
लेकिन सारी क्षमता तो इसी में खर्च कर दी,
लड़ाई दुश्मन से नहीं आपस में ही शुरू कर दी ।
इंसान को सत्ता लोभ ने इस कदर गिरा दिया,
राजनीति को सेवा क्षेत्र नहीं, धंधा बना लिया ।
अपने अंदर नफरत को इस कदर जगा रखा है,
दुश्मन कोरोना, पर मोर्चा आपस में लगा रखा है ।
करते हैं हर वक्त एक दूसरे का चरित्र हनन,
यह क्या हो गया, इस कदर नैतिक पतन ।
हर पल षड्यंत्र दूसरे को नीचा दिखाने के लिए,
संवेदना ही नहीं रही मानवता को बचाने के लिए ।
स्थिति कुछ संवेदनशील लोगों को अखर रही है,
देश की हर संस्था टूट रही है, बिखर रही है ।
कोर्ट भी अब तो आईडिया चुराने लगे हैं,
अब कोर्ट के फैसले भी फिल्मी आने लगे हैं ।
विश्वगुरु का कीर्तिमान ऐसा तो नहीं रहा होगा,
यदि हां तो ‘विश्वगुरु’ स्वयं ने ही कहा होगा ।
क्या नहीं लगता संकटकाल में संवेदना खो रहे हो,
भूतकाल के विश्वगुरु की साख को ही डुबो रहे हो ।
मानवता, नैतिकता, मर्यादा, मदद शब्द भर रह गए,
इन सब के अर्थ कहीं आपदा के थपेड़ों में बह गए ।
कोरोना की बजाए राजनेता आपस में लड़ रहे हैं,
और इन सब के दुष्प्रभाव आमजन पर पड़ रहे हैं ।
राज और राजनेताओं का संवेदनहीनता का बीड़ा,
आज आपदा से ज्यादा है नैतिक पतन की पीड़ा ।
अकेले में ही सही करतूतों को भाँपती जरूर होगी,
रूह उनकी कहीं बची होगी तो कांपती जरूर होगी
सब खत्म होने से पहले संभालने की जरूरत है,
और यही आपदा से एकमात्र बचने की सूरत है ।