संकल्प
बहुमजिंला इमारत की मुडेंर पर खडी थी वो, अपने दोनों हाथों को फैलाये चिडियों की तरह उड़ने को तैयार।और आँखों के आगे आ रहे थे शादी के बाद बीते दस साल ।
मन माफिक दहेज ना मिलने के कारण पहले दिन से मिलने वाला अपमान ।मोबाइल रखना सास को पसन्द नहीं ,एकलौते टीवी पर हर वक्त ससुर जी का अधिकार और अखबार तो घर में आता ही ना था ।
दस सालों से दुनिया से कटकर बस घर वालों को खुश रखने की कोशिश पर उसमें भी सफल नहीं ।कैसै होती आखिर सफल सबको खुश करने के लिय दहेज जो ना लायी थी वो।
पर अब और नहीं, पहले लगा झूठा चोरी का इलजाम और अब बदचलन होने का।रोज अपने ही हाथों से अपना गला रेतना बस एक उड़ान और सब खत्म ,
तभी छत के कोने से उड़ कर अखबार आ रूका उसके चेहरे पर और मरने से पहले भी बचपन की आदत छोड़ नहीं पायी वो ।और पढ़ने लगी उसे
उफ्फ्फ्फ कितना कुछ था उसमें हर तरफ खून और दर्द ही दर्द ,अपना दर्द बहुत कम लगा इस सब के आगे।
फिर से जिन्दगी से लड़ने का इरादा कर उतर आयी वो मुडे़र से ।और अखबार का वो टुकड़ा मुस्कुरा पड़ा एक जिन्दगी को बचाकर और सिसक भी पड़ा अपने अन्दर मरी अनगिनत जिन्दगीयों को याद कर कर।
नेहा अग्रवाल “निःशब्द”