“श्रेष्ठता का माप”
वो दिन का था दूजा प्रहर, मैं घर की अपनी राह में,
जो सूर्य ने किया विकल, बैठा तरु की छांव में।
जो शोर फिर सुना कहीं, सोचा सुनूं मुद्दा सही,
चलकर मैं नद निकट गया, थे चार जन स्थित वहीं।
बहस में थे उलझे हुए, सब कहते बात एक ही,
सब तुच्छ मेरे सामने, बस मैं ही तो सर्वोपरि।
जो लोग वे पृथक हुए, कौतुक मुझे हुआ बड़ा।
मैं एक जन को रोककर, जिज्ञासु हो ये कह पड़ा।
” जो मानो श्रेष्ठ स्वयं को, भगवान वो तुम तो न हो,
जो पा लिया शिखर को है, कैसे भला ये भी कहो। ”
वो दंभ भरे आंखों से, क्षण भर को देखता रहा,
खुद के ही मद में डूबकर, हंसते हुए फिर ये कहा –
” मैं स्वयं को नहीं कभी, दूजों के पद को जानता,
मैं दोष उसमें खोज कर, खुद को ही श्रेष्ठ मानता। ”
” गलती मैं खुद में देखूं क्यों, ऐसे ही जो उठ जाता हूं
दूजे को मैं नीचा दिखा, ऊंचा स्वयं को पाता हूं । ”
” ये तू भी जान ले पथिक, ये जग में मान सब चुके,
ऊंचा तभी हो पाएगा, जब सामने कोई झुके। ”
व्याकुल मेरा हुआ हृदय, पर तर्क ना मैं कर सका
मन में उठे सवाल भी, पर एक पल न मैं रुका।
अश्रु छलक उठे मेरे, संताप मन में उठ पड़ा
है रीत ये क्या ईश की, या है मनुष्य ने गढ़ा?
क्या ऊंचे होने को सदा, दूजे को सब झुकाएंगे?
मृत्यु समीप आ के क्या, संतुष्ट खुद को पाएंगे?
क्या पथ न मेरा है कोई ? शिखर चुनूं मैं उनसे ही ?
क्या लक्ष्य है निर्भर मेरा, दूजे के राह पे कहीं?
क्यों जग ये सबको सर्वदा, “ऊंचा हो उससे” बोलता?
क्या स्वयं का भी मोल वो, दूजे के कद से तोलता?
अगर जो शान है यही, जो श्रेष्ठ कहते इसको ही,
तो मन ये मेरा सोचता, कि मैं तो नीच ही सही।
मैं लक्ष्य अपना ठान लूं, उस लक्ष्य की तरफ चलूं,
हो लाख मुझसे ऊंचे भी, मैं अपने पथ से क्यों हिलूं?
मंजिल को मैं अपनी पकड़, दूजे पथिक से क्या ही डर,
संतुष्ट खुद की राह पे, सपने मेरे , मेरा शिखर।
है सत्य मेरा बस यही, कि जग में श्रेष्ठ है वही,
जो स्वयं में संतुष्ट हो, फिर राजा हो, या रंक ही।।