श्री राम का अन्तर्द्वन्द
निर्भय हो कैसे खण्डित करुँ मैं धनुष को
जिनके कण कण में है भोलेनाथ का नाम
ताण्डव करने उत्प्रेरित कर महाकाल को
क्यों बनूं मैं जनक नंदनी सीता का राम
क्या सोच कर विधि ने रचा है ये विधान
कठिन प्रश्न उठा ले रही है वो मेरी परीक्षा
क्या इक्ष्वाकु वंश के धर्म को भूल कर मैं
अपने अन्दर दबा लूं स्वयंवर की इच्छा
असमंजस में विचित्र दुविधा में हूँ पड़ा
किस विधि करुँ इस समस्या का निदान
इस स्वयंवर में सीता काे पाने की खातिर
सब राजा धनुष तोड़ने में लगाएंगे जान
कुछ बात तो है स्वयंवर के उस धनुष में
जाे अभी मेरी समझ में नहीं आ रहा है
स्वयंवर में भाग लेने आया काेई राजा
क्याें धनुष को उठा भी नहीं पा रहा है
मुझे विश्वास है विधि ने बड़ी चाल चली
राजा जनक से कठिन दाव लगवाया है
सीता को मेरी जीवन संगिनी बनाने को
कहीं भगवान की ही रची सब माया है
स्वयंवर में भाग लेने जब मैं आ चुका हूॅं
प्रदर्शन बिना खाली कैसे वापस जाऊँगा
प्रतियोगिता में भाग न लेकर रघु कुल पर
स्वयं ही कायरता का कलंक लगाऊँगा
किसी राजा द्वारा धनुष नहीं तोड़ने पर
राजा जनक ने सब क्षत्रियों को ललकारा
लक्ष्मण का क्रोध के उपरान्त क्या शेष है
धनुष तोड़ने के अतिरिक्त कोई और चारा
राजा जनक ने कहा धरा को वीर विहीन
सच में अब मुझे भी ये बहुत खल गया है
अब किसी मूल्य पर इस धनुष काे तोड़ना
मेरा भी एकमात्र अन्तिम लक्ष्य रह गया है
शीघ्र अन्तर्मन के सब संशय को कर दूर
श्रद्धा पूर्वक भगवान शिव को साक्षी माना
तुरंत चला शिला पर रखे धनुष की ओर
शेष थी एक इच्छा केवल सीता को पाना
अराध्य के नाम से झटके में धनुष उठाया
आँखें बंद कर शिव से क्षण में नाता जोड़ा
प्रत्यंचा चढ़ाते समय धनुष ह्रदय से लगाया
क्षत्रिय धर्म निभा पलक झपकते धनुष तोड़ा