श्री रामचरित मानस उत्तर काण्ड
?जय श्री सीताराम जी की?
आप सभी श्रीसीतारामजीके भक्तों को प्रणाम
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श्री रामचरित मानस उत्तर काण्ड
सोरठा
बिनु गुर होइ कि ग्यान
ग्यान कि होइ बिराग बिनु।
गावहिं बेद पुरान
सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु॥८९ क॥
भावार्थ :
गुरु के बिना कहीं ज्ञान हो सकता है? अथवा वैराग्य के बिना कहीं ज्ञान हो सकता है? इसी तरह वेद और पुराण कहते हैं कि श्री हरि की भक्ति के बिना क्या सुख मिल सकता है?॥८९ (क)॥
कोउ बिश्राम कि पाव
तात सहज संतोष बिनु।
चलै कि जल बिनु नाव
कोटि जतन पचि पचि मरिअ॥८९ ख॥
भावार्थ :
हे तात! स्वाभाविक संतोष के बिना क्या कोई शांति पा सकता है? (चाहे) करोड़ों उपाय करके पच-पच मारिए, (फिर भी) क्या कभी जल के बिना नाव चल सकती है?॥८९ (ख)॥
चौपाई
बिनु संतोष न काम नसाहीं।
काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं॥
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा।
थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा॥१॥
भावार्थ :
संतोष के बिना कामना का नाश नहीं होता और कामनाओं के रहते स्वप्न में भी सुख नहीं हो सकता और श्री राम के भजन बिना कामनाएँ कहीं मिट सकती हैं? बिना धरती के भी कहीं पेड़ उग सकता है?॥१॥
बिनु बिग्यान कि समता आवइ।
कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ॥
श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई।
बिनु महि गंध कि पावइ कोई॥२॥
भावार्थ :
विज्ञान (तत्त्वज्ञान) के बिना क्या समभाव आ सकता है? आकाश के बिना क्या कोई अवकाश (पोल) पा सकता है? श्रद्धा के बिना धर्म (का आचरण) नहीं होता। क्या पृथ्वी तत्त्व के बिना कोई गंध पा सकता है?॥२॥
बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा।
जल बिनु रस कि होइ संसारा॥
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई।
जिमि बिनु तेज न रूप गोसाँई॥३॥
भावार्थ :
तप के बिना क्या तेज फैल सकता है? जल-तत्त्व के बिना संसार में क्या रस हो सकता है? पंडितजनों की सेवा बिना क्या शील (सदाचार) प्राप्त हो सकता है? हे गोसाईं! जैसे बिना तेज (अग्नि-तत्त्व) के रूप नहीं मिलता॥३॥
निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा।
परस कि होइ बिहीन समीरा॥
कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा।
बिनु हरि भजन न भव भय नासा॥४॥
भावार्थ :
निज-सुख (आत्मानंद) के बिना क्या मन स्थिर हो सकता है? वायु-तत्त्व के बिना क्या स्पर्श हो सकता है? क्या विश्वास के बिना कोई भी सिद्धि हो सकती है? इसी प्रकार श्री हरि के भजन बिना जन्म-मृत्यु के भय का नाश नहीं होता॥४॥
दोहा :
बिनु बिस्वास भगति नहिं
तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ
जीव न लह बिश्रामु॥९० क॥
भावार्थ :
बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती, भक्ति के बिना श्री रामजी पिघलते (ढरते) नहीं और श्री रामजी की कृपा के बिना जीव स्वप्न में भी शांति नहीं पाता॥९० (क)॥
सोरठा
अस बिचारि मतिधीर
तजि कुतर्क संसय सकल।
भजहु राम रघुबीर
करुनाकर सुंदर सुखद॥९० ख॥
भावार्थ :
हे धीरबुद्धि! ऐसा विचारकर संपूर्ण कुतर्कों और संदेहों को छोड़कर करुणा की खान सुंदर और सुख देने वाले श्री रघुवीर का भजन कीजिए॥९० (ख)॥
चौपाई
निज मति सरिस नाथ मैं गाई।
प्रभु प्रताप महिमा खगराई॥
कहेउँ न कछु करि जुगुति बिसेषी।
यह सब मैं निज नयनन्हि देखी॥१॥
भावार्थ :
हे पक्षीराज! हे नाथ! मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार प्रभु के प्रताप और महिमा का गान किया।
मैंने इसमें कोई बात युक्ति से बढ़ाकर नहीं कही है।
यह सब अपनी आँखों देखी कही है॥१॥
महिमा नाम रूप गुन गाथा।
सकल अमित अनंत रघुनाथा॥
निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं।
निगम सेष सिव पार न पावहिं॥२॥
भावार्थ :
श्री रघुनाथजी की महिमा, नाम, रूप और गुणों की कथा सभी अपार एवं अनंत हैं तथा श्री रघुनाथजी स्वयं भी अनंत हैं।
मुनिगण अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार श्री हरि के गुण गाते हैं।
वेद, शेष और शिवजी भी उनका पार नहीं पाते॥२॥
तुम्हहि आदि खग मसक प्रजंता।
नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता॥
तिमि रघुपति महिमा अवगाहा।
तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा॥३॥
भावार्थ :
आप से लेकर मच्छरपर्यन्त सभी छोटे-बड़े जीव आकाश में उड़ते हैं, किंतु आकाश का अंत कोई नहीं पाता। इसी प्रकार हे तात! श्री रघुनाजी की महिमा भी अथाह है।क्या कभी कोई उसकी थाह पा सकता है?॥३॥
रामु काम सत कोटि सुभग तन।
दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन॥
सक्र कोटि सत सरिस बिलासा।
नभ सत कोटि अमित अवकासा॥४॥
भावार्थ :
श्री रामजी का अरबों कामदेवों के समान सुंदर शरीर है। वे अनंत कोटि दुर्गाओं के समान शत्रुनाशक हैं। अरबों इंद्रों के समान उनका विलास (ऐश्वर्य) है।
अरबों आकाशों के समान उनमें अनंत अवकाश (स्थान) है॥४॥
?जय श्री सीताराम जी की?