श्री गीता अध्याय सोलह
श्री गीता अध्याय सोलह
श्री भगवान बोले –
अभाव सर्वदा भय का निर्मलता अंतर की।
तत्वज्ञान हेतु ध्यान योग में निरंतर स्थिति।।
सात्विक दान, दमन इंद्रियों का पूजा देव,ईश, गुरु की।
वेद शास्त्र जो पढ़ें, पढ़ावें, ध्वनि गूंजें ईश कीर्तन की।।
कष्ट सहन न स्वधर्म पालन हित ,सरलता अंतर की अभाव सर्वथा अभय का निर्मलता आंसर की।।
कष्ट न देवे कभी किसी को मन वाणी और तन से। यथार्थ,प्रिय भाषण वाणी हो, क्रोध करे ना मन से।।
अभिमान नहीं हो कर्तापन भाव में, काम करने से।
अंतःकरण शुद्ध कर अपना बचें चित्त चंचलता से।।
निंदा भी करें न किसी की,दया भी निस्वार्थ भाव से।
संयोग भले विषयेंद्रिय हो, अनासक्ति ही हो उनसे।।
लोक-लाज का ध्यान रखें ,आचरण शास्त्र सम्मत हो।
कोमलता का भाव हृदय में, व्यर्थ चेष्टाएं प्रतिबंधित हों।।
क्षमा,तेज,धैर्य,बाहर की शुद्धि,किसी से शत्रु भाव न हो।
अभिमान रहित, स्वपूज्य भाव में,लक्षण देव पुरुष के हों।।
दम्भ,घमंड, अभिमान,क्रोध, अज्ञान, कठोरता जिसमें हो।
असुर सम्पदा लेकर पैदा होते वे, जिनमें भी ये लक्षण हों।।
मुक्त पथी है दैवीय सम्पदा, असुर सम्पदा है बांधने वाली।
शोक न कर तू हे अर्जुन! तेरी प्रकृति दैवीय सम्पदा वाली।।
हे अर्जुन! इस लोक में दो प्रकार के हैं होते मनुष्य समुदाय।
एक आसुरी,द्वितीय दैवीय प्रकृति युक्त वृत्ति कहूँ समझाय।।
दैवीय प्रकृति बता चुका,आसुरी प्रवृत्तियां सुन ध्यान लगाय।
नहीं वे होते अंदर -बाहर, शुद्ध-सरल कहीं ,रखते भरमाय।।
ऐसे पुरुष नहीं जानते प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों को ही।
इसीलिए वे नहीं जानते श्रेष्ठ आचरण,सत्य दोनों को ही।।
ऐसे मनुज समझते जग को,असत्य,बिना ईश्वर चलने वाला।
आश्रय रहित मानते,महज स्त्री-पुरुष संयोग से चलने वाला।।
इस मिथ्या ज्ञान के अवलंबन से, स्वभाव नष्ट हुआ जिनका।
हैं जो मूढ़ बुद्धि, क्रूरकर्मी ,जगत नाश में मन लगता उनका।।
ऐसे दंभी ,मदभाव से युक्त,मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करते।
अपूर्णीय आकांक्षाओं का आश्रय ले,भ्रष्ट हुए जग में फिरते।।
ऐसे वे जन आजीवन होते हैं, असंख्य चिंताओं से घिरे हुए।
विषय भोग,कामनाएं लिए, भ्रमित से अंध कूप में गिरे हुए।।
आशा की विविध फांसियों बंधे हुए, चिंताओं के आश्रय में।
विषय भोग ही जीवन है,समझ के रहते ज्यों राजाश्रय में।।
वे काम क्रोधके पारायण रहकर, उनमें ही विचरण करते।
उन्हीं भोगों हित अन्यायपूर्वक,धन आदि पदार्थ संग्रह करते।।
वे सोचें कुछ ऐसे जैसे मैंने आज प्राप्त कर लिया इतना।
कल और करूंगा, इतना -उतना,ना जाने फिर कितना।।
वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया ,कल और दूसरे भी मारूंगा ।
मैं ईश्वर हूंँ सिद्धि युक्त बलवान,सुखमय ऐश्वर्य सब भोगूंगा।।
धनी बड़ा और बड़ा कुटुम्बी,मेरे समान दूसरा कौन।
यज्ञ करूंगा,दान करूंगा,आमोद -प्रमोद में मुझसा कौन।।
ऐसे रह अज्ञान से मोहित अनेक प्रकार,
भ्रमित जाल में फंसे हुए।
वैसे ही अत्यंत विषयासक्त असुर जन,
समझो महा नरक में पड़े हुए।।
ऐसे वे अहंकार,बल,घमंड,कामना,क्रोधादि के पारायण जन, औरों की निंदा करने वाले।
होते हैं वे अपने और दूसरों के शरीर में, स्थित मुझ अंतर्यामी से ,केवल द्वेष ही करने वाले।।
ऐसे उन द्वेष करने वाले पापाचारी, क्रूरकर्मी नराधमों को ।
पहुँचाता हूँ बार-बार संसार में,आसुरी योनि के आश्रय को।।
हे अर्जुन!
वे मुझे नहीं प्राप्त कर पाते,हर जन्म आसुरी योनि ही पाते।
फिर उससे भी अति नीच,घोर अति घोर नरकों में हैं जाते।।
काम क्रोध और लोभ हैं,तीन नरक के द्वार।
बैरी तीनों आत्मा के , खोलें अधोगति के द्वार।।
हे अर्जुन!
मुक्त है जो तीनों द्वारों से , कल्याण कर है मार्गं यही।
परमगति प्राप्ति हित, मुक्ति ,स्व उद्धार का मार्ग सही।।
जो पुरुष शास्त्र विधि त्याग करें आचरण मनमाना।
मुश्किल होती सिद्धि उनको और परमगति का पाना।।
इति श्री सोलहवां अध्याय
मीरा परिहार 💐✍️