श्री गीता अध्याय सत्रहवां
अर्जुन बोले, हे कृष्ण !
उनकी स्थिति कौन सी कहीं जाती है ?
जो शास्त्र विधि को त्याग कर पूजन करते हैं
हे कृष्ण !
पूजन करें जो श्रद्धा से देवों का, शास्त्र विधि को त्याग कर।
स्थिति उनकी कौन सी ,सात्विक ,राजस या तामसी होती फिर।।
बोले श्री भगवान !
मनुजों में शास्त्रीय संस्कारों से रहित स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा।
होती है क्या सुन आज मुझसे विस्तार सहित छोड़कर दुविधा।।
होती तीन प्रकार की सात्विक, राजस और तामस श्रद्धा।।
इसीलिए है अंतरण के अनुरूप ही, जैसे पुरुष वैसी श्रद्धा।
सात्विक पूजें देवों को, राजस यक्ष और राक्षसों को।
तामस मनुज पूजते, प्रेत ,पिशाच , भूतगणों को।।
शास्त्र विधि से रहित करें जो, घोर स्वमन स्वकल्पित तप।
दंभ,अहंकार,कामना,आसक्ति,बल के अभिमान से परंतप।।
ऐसे तप मनुष्यों को और परमात्मा को ही कृश करने वाले होते।
ऐसे वे जन असुर स्वभाव वाले, अज्ञानी, मूड ,दंभीजन होते।।
भोजन भी होता प्रिय सबको अपनी प्रकृति के अनुसार।
होते ये भी तीन ही ज्यों होते दान,तप,यज्ञ तीन प्रकार।।
ऐसे इन पृथक – पृथक भेद को कहता हूँ मैं तुझसे सुन। आयु ,बुद्धि, बल, आरोग्य सुख प्रीत बढ़ाते जो उनको गुन।
हैं पदार्थ जो चिकने, रस युक्त और सदा स्थिर रहने वाले ।
स्वाभाविक प्रिय सात्विक को होते, आहार सुखकर वाले।।
कड़वे, खट्टे, लवणीय,गर्म,बहु तीखे,रूखे और दाहक।
होते प्रिय राजस पुरुषों को ,जो होते रोगों के संवाहक।।
भोजन जो अधपका,रस रहित, दुर्गन्धित,वासी , उच्छिष्ट, अपवित्र।
होते हैं वह तामस प्रवृत्ति वालों को पसंद,हे अर्जुन मेरे मित्र।।
शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, कर्तव्य करें जो मन का समाधान करके।
सात्विक होता है वह,यदि किया जाए न ,फल की इच्छा करके।।
परंतु हे अर्जुन!
फल की चाहत रख कर करते, जो यज्ञ दम्भाचरण हेतु।
करते हैं राजस जन इनको, फल पाने के निमित्त स्वहेतु।।
शास्त्र विधि से रहित,अन्न दान, दक्षिणा बिना पढ़े मंत्रों से।
यज्ञ बिना श्रृद्धा,करते हैं तामस जन उसे स्वेच्छिक तंत्रों से।।
देव ,ब्राह्मण, गुरु, ज्ञानी जन,पूजन, अहिंसा और सरलता।
शरीर सम्बंधित तप होते हैं ये सब, जैसे ब्रह्मचर्य, पवित्रता।।
उद्वेग न करते जो , प्रिय, हितकारक,मृदु और सत्यभाषी हैं।
वाणी तप कहलाते, वे जो वेदवाणी, नाम जप अभ्यासी हैं।।
मन के तप वे कहलाते, जिनमें अंत:करण पवित्रता भावों की ।
शांत भाव मन निग्रह, स्वभाव भगवत चिंतन में प्रसन्नता मन की।।
फल की चाह न रखने वाले, कार्य परम श्रृद्धा से करने वाले।
तन,मन,वचन से करने वाले, जन होते सात्विक तप वाले।।
जो सत्कार,मान, पूजा और स्वार्थ हितार्थ से हैं तप करते।
ऐसे अनिश्चित,क्षणिक, पाखंड पूर्ण तप राजस जन करते।।
जो तप करें मूढ़ता पूर्वक, किसी की अनिष्ट चाहना हेतु।
किए जाएं तामस तप,हठ से मन ,वाणी शरीर दुःख देने हेतु।।
दान है कर्तव्य, जान ऐसा जो देते देश,काल, अनुरूप पात्र को।
सात्विक है वह दान,भावना प्रति उपकार नहीं है जिनको।।
लेकिन जब देते दान क्लेश पूर्वक, प्रत्युपकार प्रयोजन से।
कहलाते वे दान राजसी,देते जिन्हें आपसी समायोजन से।।
सत्कार बिना, अयोग्य,देश,काल,पात्र के प्रति हम जो देते।
ऐसे तिरस्कार पूर्वक दिए दान को हे अर्जुन! तामस कहते।।
कहा गया तीन प्रकार का सच्चिदानंद, ब्रह्म,ओम,तत,सत्।
सृष्टि के आदि काल में ब्राह्मण,वेद,यज्ञादि रचे इन से सच।।
इसीलिए श्रेष्ठ जन की नियत सभी क्रियाएं, शास्त्र विधि से।
यथा यज्ञ,दान,तप,वेद, मंत्रोचारण,आरंभ ॐ उच्चारण से।।
तत्! यानि परमात्मा का ही सब है,फल की न चाहत रखते।
यज्ञ, तप,दान क्रियाएं करें , जगत कल्याण भावना रखके।।
सत्! यानि परमात्मा नाम प्रयोग, श्रेष्ठ, सत्य भाव में करते।
उत्तम कार्यों में हे पार्थ! सत् नाम का प्रयोग वे जन करते।।
यज्ञ,तप,दान कहे जाते सत्, परमात्मा हेतु किया कर्म भी सत्।
बिना श्रृद्धा किया गया हर तप ,दान,हवन समस्त कहा जाता असत्।।
इसलिए हे अर्जुन! वह न लाभकारी इस लोक में और न ही परलोक में।।
इति श्री गीता सत्रहवां अध्याय 🙏🌻✍️