श्री गीता अध्याय नवम
ज्ञान कहूँ भली-भांति पुनः गोपनीय विज्ञान सहित।
विज्ञान सहित यह ज्ञान सभी विधाओं का राजा
अति पवित्र अति उत्तम सब गोपियों का राजा।।
साधन में है सुगम धर्म युक्त अविनाशी।
प्रत्यक्ष भक्तों को फलों का देने वाला।।
होते हैं जो पुरुष ऐसे धर्म में अश्रृद्धावान परंतप! जब।
प्राप्त ना होते मुझे घूमते मृत्य रूप संसार चक्र में तब।।
मुझ निराकार परमात्मा से यह जग जल से पूर्ण बर्फ सम।
वैसे ही सब संकल्प आधार मुझसे, नहीं मैं हूँ उनमें सच।।
ज्यों उत्पन्न व्योम से वायु सर्वत्र गुजरती नभ में।
त्यों मेरे संकल्प कृत प्राणी संपूर्ण उपस्थित मुझ में।।
अर्जुन! सब भूत लीन होते प्रवृत्त, कल्पों के अंत में ।
फिर रचता हूँ उन्हें युगों तक , पुनः शुरू -आरंभ में।।
तुच्छ समझते मुझे मूड़ वे जो परम भाव ना जानें।
हैं विक्षिप्त, अज्ञानी, राक्षसी ,आसुरी प्रवृत्ति मानें।।
व्यर्थ कर्म, ज्ञान, आशा में ,मोहिनी माया में रमने वाले।
हे कुंती पुत्र !
दैवी प्रकृति आश्रित महात्म, सनातन कारण मुझको माने।।
नाश रहित अक्षर स्वरूप मुझे जान, निरंतर भजें और मानें।
ऐसे दृढ़ निश्चय उक्त भक्तजन करें कीर्तन गुणों का मेरे।
याद करें ध्यान प्रेम से प्रणाम उपासना अपने कर जोरे।।
ज्ञानी योगी मुझ निराकार , निर्गुण का ज्ञान यज्ञ से पूजन करते।
वहीं दूसरे मुझ विराट स्वरूप की, बहु प्रकार उपासना भिन्न भाव से करते।।
कृत्य में मैं हूँ ,यज्ञ-स्वधा में मैं हूंँ, औषधि में भी मैं हूँ।
मंत्र-घृत हूंँ मैं, हे अर्जुन! अग्नि,हवन क्रिया भी मैं हूँ।।
सम्पूर्ण जगत का धात्रा, पिता-माता,पितामह भी मैं हूँ।
ओंकार,ऋग,साम,यजुर्वेद,कर्म फल देने वाला भी मैं हूँ।।
परमधाम सबका स्वामी हूँ, शुभाशुभ देखने वाला भी मैं।
वासस्थान,पालनकर्ता, प्रत्युपकार न चाहने वाला भी हूंँ मैं।।
सूर्य रूप में तपता हूँ मैं, वर्षाजल का आकर्षण कर्ता भी हूँ।
अमरत्व-मृत्यु भी मैं ही,सत-असत का धारणकर्त्ता भी हूँ।।
विधान किए तीनों वेदों में.
पाप रहित जो मुझे पूजकर ,स्वर्ग लोक को चाहते।
निश्चित ही ऐसे प्राणी जन वे, दिव्य धाम ही हैं पाते।।
प्राप्त करें वे देवताओं को, जो हैं देवता पूजने वाले।
पितरों को हों प्राप्त, जो पूजा पितरों की करने वाले।।
भूतों को होते प्राप्त, जो हैं भूतों की पूजा करने वाले।
मुझको होते प्राप्त मनुज जो, मुझको हैं पूजने वाले।।
जो मुझे प्रेम से पत्र, पुष्प,फल,जल अर्पित करता है।
ऐसे उन निष्काम प्रेमी के,सगुण प्रकट हो मैं लेता हूँ।।
हे अर्जुन!
करता है जो कर्म,दान,देता ,खाता,हवन जो करता।
तप करता, अर्पण करता,सब निमित्त मेरे ही करता।।
जहांँ कर्म सब हों अर्पण,ऐसे योग से युक्त हो करे समर्पण।
तब तू होगा मुक्त कर्म बंधन से, प्राप्त करेगा मुझे तत्क्षण।।
न मम प्रिय न अप्रिय कोई,भजे जो मुझको मैं उनका होई।
अनन्य भाव से भजने वाला दुराचारी भी मानो साधु होई।।
नष्ट न होता कोई भक्त मेरा,सत्य मान ले यह हे अर्जुन!
हो जाता धर्मात्मा वह, प्राप्त करे परमशक्ति को जनार्दन।।
शरण मेरी आकर,हे अर्जुन! परमशक्ति को प्राप्त होते वो।
स्त्री,वैश्य, शूद्र, चांडाल,पापयोनि या चाहे कोई भी हो जो।।
कहना ही क्या उनका,जो प्रयत्नशील, ब्राह्मण, राजर्षि जन।
परमगति को पाते वे,जो आकर शरण मेरी करें मेरा भजन।।
इसीलिए तू क्षणभंगुर,सुखरहित,शरीर से, प्राप्त कर मुझको करके मेरा भजन।
मुझमें मन वाला हो,पूजन प्रणाम कर,मेरे पारायण हो, प्राप्त हो मुझे कर अर्पण।।
समाप्त
मीरा परिहार 💐✍️