श्रीराम गाथा
श्रीराम गाथा
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कई युग आए और चले गए ,
श्रीराम प्रभु सा,कोई हुआ नहीं ।
होते हैं वीर महान पुरुष ,
पर अन्तर्मन कोई छुआ नहीं ।
धन्य अयोध्या की पावन नगरी ,
सुत देख कौशल्या निहाल हुई ।
युगपुरुष बनकर अवतार लिए ,
नारायण ने बालक रूप धरी ।
कई युग आए और चले गए…
अद्भूत,अखंड रूप दिखलाए ,
कोटि-कोटि ब्रह्मांड समाये ।
अचरज में पड़ी जब माँ कौशल्या,
फिर से बालक रूप धरा वहीं ।
कई युग आए और चले गए…
काकभुशुण्डि संग चले शिवजी ,
बालछवि रुप प्रभु का दर्शन करने ।
ज्योतिष का रुप धरा उसनें ,
दृश्य मनोहर बहुत,अब अवधपुरी ।
कई युग आए और चले गए…
गुरुकुल में शिक्षा ली थी जब,
विश्वामित्र,वशिष्ठ गुरु थे उनके ।
ले भिक्षाटन, भूमिशयन किया ,
फिर वीर धनुर्धर बना वहीं ।
कई युग आए और चले गए…
पाप से बोझिल धरती थी,
संत मुनिवर थे भयभीत यहॉं ।
ताड़का वध करके राघव ,
उन्हें शोकमुक्त कर दिया सही ।
कई युग आए और चले गए…
माँ अहिल्या जो जड़वत थी ,
हो शापग्रस्त बनकर पत्थर ।
चरण रज धुल पाकर,रघुवर का ,
वो शापमुक्त,मुनि गौतम संग गई ।
कई युग आए और चले गए…
सजी मिथिला जनकपुर धाम जहां ,
पहुंचे थे भूप, विशाल कई ।
माँ सीते की स्वयंवर थी सजी ,
शिवधनुष किसी से टुटा ही नहीं ।
कई युग आए और चले गए…
भ्राता संग गए प्रभु स्वयं रघुवर ,
फिर नाम गुरु का लेकर धनुर्धर ।
श्रीराम ने प्रत्यंचा तान धनुष को ,
दो टुकड़ों में खण्डित कर दिया वहीं।
कई युग आए और चले गए…
पुलकित होकर मिथिला नगरी ,
गान मधुर प्रभु गुणगान करी ।
माँ सीते ने प्रभु को किया वरण ,
जिसे देख सुनयना खिल सी गई ।
कई युग आए और चले गए…
बूढ़ी मंथरा ने षड़यंत्र रची ,
रानी केकैयी ने फिर वर मांगी ।
चौदहवर्ष वनवास हुआ रघुवर को ,
दशरथ की आकांक्षा पूरी न हुई ।
कई युग आए और चले गए…
मां सीते संग चले वन को राघव ,
भाई लक्ष्मण क्यों पीछे रहता ।
सब कुछ है विधि के हाथ सदा ,
पर राम कभी विचलित न हुए ।
कई युग आए और चले गए…
आया जब सुरसरि गंगातट पथ में ,
सहजभाव केवट ने विनती किया ।
पहले पाँव पखारण तो दीजिए ,
उतराई तो मैं लुंगा ही नहीं ।
कई युग आए और चले गए…
शोकाकुल हो,विरह-वेदना में दशरथ ,
दे दी प्राणों की आहुति अपनी ।
तज राजमुकुट,अयोध्या में भरत ने ,
श्रीराम से मिलने वन को वो चले ।
कई युग आए और चले गए…
ये भरत-मिलाप का क्षण देखो ,
ब्रह्मांड प्रलय सा भारी था ।
अश्रुधारा प्रेम की जो बह निकली ,
उसकी तो कोई मिसाल नहीं ।
कई युग आए और चले गए…
कंद-मूल खाते दुनु भाई ,
सीता संग वन कुटिया में रहे ।
चौदह साल तपस्वी बनकर ,
भ्राता लक्षमण तो सोया ही नहीं ।
कई युग आए और चले गए…
ठगिनी माया बन,रावण अनुजा ,
करने चली थी,तप भंग वहॉं।
लक्षमण को आया गुस्सा जब,
सूर्पनखा की थी तब, नाक कटी ।
कई युग आए और चले गए…
जीवन तृष्णा भी है मृगमारिच जैसा ,
सीता माता जो तत्क्षण मोहित हुई ।
अहंकारी रावण को मिला अवसर ,
अपहृत होकर वो लंका को चली ।
कई युग आए और चले गए…
लक्ष्मणरेखा कभी लांघो मत ,
भ्राता लक्ष्मण का है वचन यही ।
यही संस्कार सनातन धर्म का ,
पर पालन क्यों न, करता है कोई ।
कई युग आए और चले गए…
गिद्ध जटायु था बूढ़ा लेकिन,
उसने रावण का निज प्रतिकार किया।
पंख कटे, प्राण गंवाकर भी,
अन्याय से कभी, हार माना ही नहीं ।
कई युग आए और चले गए…
शबरी के जूठे बेर खाकर प्रभु ने ,
प्रेम की नवीन परिभाषाएँ दी ।
भावप्रबलता से बढ़कर कोई ,
होती नहीं है प्रेमधारा कहीं भी ।
कई युग आए और चले गए…
वानर सेना की मदद लेकर ,
पहुंचे थे वो सिंधु के तट पर ।
की विनती,अर्पण और पूजन ,
रास्ते की मांग फिर उसने की ।
कई युग आए और चले गए…
जब सिंधुदेव विनती न सुनी ,
तो उठा धनुष, कर मंत्रसिद्ध ।
फिर सिंधुदेव ने दिया दर्शन,
रामसेतु निर्माण की उपाय कही ।
कई युग आए और चले गए…
पंचवटी में बैठी जनकसुता अब ,
विरह की आग में थी तड़प रही ।
त्रिजटा राक्षसी ने कुछ भरोस दिया ,
श्रीराम की बाट में आंख गड़ी ।
कई युग आए और चले गए…
मन्दोदरी ने चेताया था रावण को ,
माँ सीते को तुरंत वापस कर दो।
काल के रुख को समझ लो तुम ,
पर रावण ने अनसुनी कर दी ।
कई युग आए और चले गए…
वीर हनुमान अब उतरे दूत बनकर ,
श्रीराम का आशीर्वाद लिए दिल की ।
लांघा था विशाल पयोनिधि को,
सब बाधाओं को उसने दूर कर दी ।
कई युग आए और चले गए…
लंका को जला लौटे अंजनिपुत्र ,
श्रीराम को सारी कथा कही ।
पता बतलाया जो वैदेही का ,
श्रीराम प्रभु तब व्याकुल हो गए।
कई युग आए और चले गए…
श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम थे ,
युद्ध को दिल से चाहा ही नहीं।
भेजा था पुनः अंगद को वहाँ ,
लेकिन संधि की बात बनी नहीं ।
कई युग आए और चले गए…
रावण का भाई विभीषण था,
अन्याय-अधर्म से विचलित जो हुआ ।
छोड़ा अधर्म का साथ अब वो ,
श्रीराम प्रभु के चरणों तरहीं ।
कई युग आए और चले गए…
संग्राम छिड़ा था महाभारी ,
दोनों ओर कई दिग्गज थे ।
लक्षमण मूर्छित जब हुए वाणों से ,
हनुमान फिर लाए संजीवनी वटी ।
कई युग आए और चले गए…
रावण का दर्प चकनाचूर हुआ ,
बंधु-बांधव सहित मारा वो गया ।
हुई धर्म की जीत फिर से जग में ,
पर अहंकार,प्रभु को छुआ नहीं ।
कई युग आए और चले गए…
वानरसेना की ही,फिर से जरूरत है ,
सुविज्ञजन सुधि लेते ही नहीं ।
जिसमें अहंकार है खुद उपजा ,
वो दशमुख को मिटा सकते ही नहीं।
कई युग आए और चले गए…
सच्ची करुणा और दया लिए ,
यदि राम बसा लो सीने में ।
श्रीराम जपो, श्रीराम जपो ,
कोई दुःख,तब जग में होगा ही नहीं।
कई युग आए और चले गए…
श्रीराम की प्रेरणा मिली मुझको ,
गाथा जो लिखी, आज्ञा उनकी ।
पहुँचाओं इसे, हर मानव तक ,
कल्याण सदा हो जन-जन की ।
कई युग आए और चले गए…
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – २८ /११ /२०२१
कृष्णपक्ष, नवमी, रविवार,
विक्रम संवत २०७८
मोबाइल न. – 8757227201