श्राप
वैसे तो यह कविता भारतीय सेना की एक सत्य घटना पर आधारित है, परन्तु मैं यहाँ किसी व्यक्ति विशेष या उससे सम्बन्धित किसी स्थान का नाम नही लिखूंगा क्योंकि प्रस्तुत कविता में मैं सिर्फ उस भाव को दर्शाने की कोशिश कर रहा हूँ जो हर वर्दी धारियों के अंदर अपने मातृभूमि के प्रति कूट कूट कर भरी होतीहै …..
अच्छे अच्छे कांप जाते, देख सुन कर के जिसे,
ऐसे ऐसे हालातो से अपना, होता रोज मेल है।
साँप सीढ़ी खेलने वालों, जज्बातों से न खेलिए,
दिल पर पत्थर रखना नहीं, बच्चों का खेल है।।
एक दिन सीमा पर, आदेश हुआ अफसर का,
फलाने गाँव का कोई एक, जवान मुझे चाहिए।
अभी अभी शहीद हुए, अपने यह हवलदार जो,
भिजवाने को ससम्मान, कुछ समान मुझे चाहिए।।
सिपाहियों के बीच से, एक हाँथ तभी खड़ा हुआ,
जाने को तैयार मैं, मुझको इनके साथ कीजिये।
मैं भी हूँ उसी गावँ का, मैं जानता हूँ बखूबी इन्हें,
बस गुजारिश है छुट्टी भी मुझे, हाथों हाथ दीजिये।।
सुन कर के बात यह, स्तब्ध हुआ माहौल वहाँ,
स्वार्थ है या कोई जरूरत, ये दुविधा हुई बड़ी है।
चीख उठे अफसर, आँखें लाल किये वो क्रोध से,
नामाकूल ऐसे वक़्त में, तुझको छुट्टी की पड़ी है।।
गर न किया क्रिया कर्म, इनकी आखरी विदाई का,
तो भगवान की कसम से मुझको, बड़ा श्राप लगेगा।
नाम जिसका लिया है, आपने अभी अभी साहब,
आपको बता दूं की वह, रिश्ते में मेरा बाप लगेगा।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित १६/०२/२०२२)