श्रापमुक्त
कुछ बूँदे! … जाने क्या जादू कर गई थी?
लहलहा उठी थी खुशी से फिर वो सूखी सी डाली….
झेल रहा था वो तन श्रापित सा जीवन,
अंग-अंग टूट कर बिखरे थे सूखी टहनी में ढलकर,
तन से अपनों का भी छूटा था ऐतबार,
हर तरफ थी टूटी सी डाली और सूखे पत्तों का अंबार..
कांतिहीन आँखों में यौवन थी मुरझाई,
एकांत सा खड़ा अकेला दूर तक थी इक तन्हाई,
मुँह फेरकर दूर जा चुकी थी हरियाली,
अब दामन में थे बस सूखी कलियों का टूटता ऐतबार…
कुछ बूँदे कहीं से ओस बन कर आई,
सूखी सी वो डाली हल्की बूँदों में भीगकर नहाई,
बुझ रही थी सदियों की प्यास हौले होले,
मन में जाग उठा फिर हरित सपनों का अनूठा संसार…
हुई प्रस्फुटित नवकोपल भीगे तन पर,
आशा की रंगीन कलियाँ गोद भरने को फिर आई,
हरितिमा इठलाती सी झूम उठी तन पर,
ओस की कुछ बूँदें, स्नेह का कुछ ऐसा कर गई श्रृंगार..
उम्मीदों की अब ऊँची थी फरमाईश,
बारिश की बूँदों में भीग जाने की थी अब ख्वाहिश,
श्रापित जीवन से मुक्त हुआ वो अन्तर्मन,
कुछ बूँदे! ..जाने क्या जादू कर गई थी सूखी डाली पर..