श्राद्ध की महत्ता
श्राद्ध की महत्ता
आइए एक बार फिर
श्राद्ध की औपचारिकता निभाते हैं
अपने पूर्वजों को याद करते हैं
तर्पण, पिंडदान, श्राद्ध की खानापूर्ति करते हैं,
कौआ, कुत्ता और गाय को रोटी कहां से खिलाएं
आज जब ये हमारे पास नहीं आते,
गाय पालना तो हमने छोड़ दिया है,
शहरी बाबू जो बन गये हैं,
कुत्ते और कौवे भी कम ही दिखते हैं
क्योंकि हम घरों में नहीं
भवनों में अब निवास करने लगे हैं।
आज की पीढ़ियां हमसे ज्यादा समझदार हैं
दिखावा करने में वो महारत हासिल कर चुके हैं,
श्राद्ध दान तर्पण की खानापूर्ति करने में
अड़ोसियों पड़ोसियों में सबसे आगे रहते हैं ,
सोशल मीडिया पर गर्व से बताते हैं
करते कम दिखाते ज्यादा हैं
हां! समय का रोना जरुर रोते हैं,
जैसे जीवित रहते पूर्वजों को
हम उन्हें पलकों पर रखते थे,
जमीन पर पैर तक नहीं रखने देते थे।
न कभी अपमान, न उपेक्षित करते थे
न ही उन्हें अकेले मरने के छोड़ा
न ही बिना सेवा सत्कार इलाज के मरने ही दिया।
वृद्धाश्रमों में हमारे पूर्वजों के भूत रहते हैं
हमारे श्रवण कुमार होने का गुणगान जो करते हैं।
ठीक वैसे ही जैसे आज हम
तर्पण, पिंडदान, श्राद्ध करते हैं
और आज के श्रवण कुमार बनते हैं,
अपने बच्चों को बड़े बुजुर्गो से दूर रखकर
नये जमाने की सीख देते हैं,
बच्चों को उनके दादा दादी, नाना, नानी
ताऊ ताई के करीब जाने में भी
अपनी बड़ी तौहीन समझते हैं।
कुछ ऐसा ही हम आज पितृपक्ष में करते हैं
सच तो यह है कि खुलकर आडंबर करते हैं
आधुनिक विधि से हम जैसा श्राद्ध करते हैं
उसी तरह ही तो श्राद्ध का महत्व
आज की पीढ़ी और दुनिया को बताते हैं।
पुरखों की दी हुई सीख भूलकर
आज की पीढ़ी को सुसंस्कारित करते हुए
श्राद्ध का महत्व भी बताते हैं,
अपने कर्तव्यों की औपचारिकता के
श्राद्ध की महत्ता के साथ ही निपटाते हैं।
सुधीर श्रीवास्तव गोण्डा उत्तर प्रदेश