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4 Aug 2021 · 1 min read

श्रम देवी

श्रमाधिक्य से आरक्त हुआ चेहरा
दमक रहा था कुंदन सा
उभरे स्वेद बिंदु लग रहे थे
मानो जड़े हों नगीने
और वह सामान्य सा मुखड़ा
शोभायमान हो रहा था
जड़ाऊ हार सा।

प्रेम से परिपूर्ण दोनों नेत्र
लगते थे देते से आमंत्रण
उनमें बसी चिन्तायें
बरजती थीं कुछ भी करने से
और ठाठें मारता वात्सल्य
धिक्कारता था कामुकता को
लज्जित हो वह कर उठा
उस श्रम देवी को नमस्कार।

जयन्ती प्रसाद शर्मा, दादू।

Language: Hindi
2 Likes · 2 Comments · 562 Views

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