श्रम देवी
श्रमाधिक्य से आरक्त हुआ चेहरा
दमक रहा था कुंदन सा
उभरे स्वेद बिंदु लग रहे थे
मानो जड़े हों नगीने
और वह सामान्य सा मुखड़ा
शोभायमान हो रहा था
जड़ाऊ हार सा।
प्रेम से परिपूर्ण दोनों नेत्र
लगते थे देते से आमंत्रण
उनमें बसी चिन्तायें
बरजती थीं कुछ भी करने से
और ठाठें मारता वात्सल्य
धिक्कारता था कामुकता को
लज्जित हो वह कर उठा
उस श्रम देवी को नमस्कार।
जयन्ती प्रसाद शर्मा, दादू।