श्रंगार लिखा ना जाता है।
मैं लिख दूं गीत अभी यौवन के,
शब्दों से श्रंगार रचूं।
कलियां, भंवरे, पायल, कुमकुम,
मैं काजल क्या क्या और लिखूं?
पर जब–जब चीख करुण सुनता हूं,
आहत मन अकुलाता है।
लिखना चाहूं श्रंगार मगर, श्रंगार लिखा ना जाता है।
कलियां मुरझाकर शुष्क होती,
काजल अश्रु बन बहता है।
भंवरे उड़ दूर भागते हैं,
कुमकुम सोंडित सा बहता है।
आंखों में लावा फूट–फूट,
शब्दों का फेर बदलता है।
फिर आहत मन घबराता है,
और रूदन सुनाई देता है।
लिखना चाहूं श्रंगार मगर, श्रंगार लिखा ना जाता है।।
मैं कलम उठाने जाता हूं,
मैं कलम उठा न पाता हूं,
लिखना चाहूं कंगन के नंग,
टूटी चूड़ी लिख आता हूं,
फिर लाश तिरंगों में दिखती,
हाथों में बर्फ सा जमता है।
हर ओर करुण का अंधकार,
सूरज उगने से डरता है।
लिखना चाहूं श्रंगार मगर, श्रंगार लिखा ना जाता है।।
अभिषेक सोनी “अभिमुख”
ललितपुर, उत्तर–प्रदेश