शोषण (ललितपद छंद)
रोटी अपनी गरम तवे पर, सेंक-सेंक सब खाते।
संचालक बन करें डकैती, जनता को भरमाते।।
करने वाले कृषक हमारे, अन्न अधिक उपजाते।
अपने हिस्से की फसलों का, दाम अधूरा पाते।।
हर चीजों में झोल-झाल है, फिर भी घर हम लाते।
जीवन की मौलिक चीजों का, दूना दाम चुकाते।।
बहके खुद वह चकाचौंध में, ऐसा जाल बिछाते।
माँगों को आधार बनाकर, हर इक दाम बढ़ाते।।
धनवानों की ऐसी इज्जत, प्रभु सम पूजे जाते।
सीधे-सादे इंसानों की, हम सब हँसी उड़ाते।।
गलती खुद की ठोकर खायें, पत्थर पर चिल्लाते।
उल्टी गंगा उल्टी बानी, गिरते और गिराते।।
मानवता कागज में सिमटी, कूटनीति के नाते।
अपनी-अपनी डफली सबकी, राग स्वयं का गाते।।
खोदा पर्वत निकली चुहिया, जीवन-भर शर्माते।
लूटे जाते इस कारण हम, हारों पर मुस्काते।।