शैशव की लयबद्ध तरंगे
मेरी याददाश्त बचपन से बहुत तेज थी। चार-पाॅंच वर्ष की अवस्था में मैं बहुत खबूस थी। अबोध और विस्मय से भरी खाने पीने की दुनिया मुझे सदैव आकर्षित करती रहती थी। वाकया 1974 का होगा …हाता दुर्गा प्रसाद , जहां सात आठ घर आसपास बने थे , वहाॅं मेरा घर गली शुरू होते ही पांचवें नंबर पर था | लोग सैर को जाते, एक दूसरे की पूरी खबर भी रखते, चिंता भी करते। मोहल्ले के बड़े लोग मम्मी के ‘अनकहे ससुर’ होते और पापा के हमउम्र लोग ‘भैया’। बराबर की महिलाएं अपने आप ‘बीबी जी’ बन जाती थीं। एक अलग तरह का माहौल होता था तब। पूरा मोहल्ला परिवार की तरह रहता था। एक दिन रोज की तरह सवेरा हुआ…मैं घर का दरवाजा खोल कर देहरी पर बैठ गयी…बताने की आवश्यकता नहीं कि गोलमटोल मैं! सुंदर-मुंदर गुड़िया सी लगती थी। जो निकलता मेरे नमस्ते से रूबरू होता । अचानक मेरी नजर नाली में गिरे चमकते सुर्ख लाल टमाटर पर पड़ी। सुबह के समय सब अपनी-अपनी जल्दी में होते थे। घर के जीने से लगी साफ-सुथरी नाली मुझे सजी-सॅंवरी खाने की थाली का रूप लग रही थी और उसमें चमकते उस सुर्ख लाल रंग के टमाटर को देखकर मेरे मुंह में पानी आ गया था। अर्जुन के लक्ष्य की भांति मेरा बालमन उस टमाटर को देखते ही उसे पाने के लिए कटिबद्ध हो गया। एक पल में मैं नीचे और .टमाटर मेरे मुंह में, पूरा का पूरा! पर उसी क्षण, एक तेज आवाज से मेरा मुॅंह खुला का खुला रह गया, मैं टमाटर को न गटक पा रही थी, न चबा पा रही थी। चोरी पकड़ी गई थी। गली के अंत में ‘मिस्टर दद्दा’(बुर्जुग) रहते थे, वो टहल के लौट रहे थे, उनकी पैनी नज़र मेरी इस हरक़त पर पड़ चुकी थी। उनका बेंत मेरे हाथ पर! “थूको …तुरंत थूको, हिम्मत कैसे हुई नाली में पड़ा टमाटर खाने की” कहते हुए उन्होने कस कर डाँट लगाई …मैंने देर न करते हुए एक झटके में टमाटर गटक लिया, साबुत! मिस्टर दद्दा आग-बबूला हो उठे “उमेश (पापा का नाम), कहाॅं हो तुम!” कहते हुए मेरा हाथ पकड़कर वो घर के अंदर पहुॅंच गये। “निर्मल! (मम्मी का नाम), इसको कड़ी सजा दो” कह कर उन्होने मम्मी को सब बताया। मम्मी सकते में ! मैं ढीठ, चौड़ी-चौड़ी, बड़ी-बड़ी ऑंखें चुराती रही, “क्या गलत किया जो टमाटर खा लिया ?” मैं मन ही मन सोचती जा रही थी, तब तक मिस्टर दद्दा मुझे घर के ऊपर वाले कमरे में ले गए और मुझे एक कमरे में बन्द कर दिया। अब मेरी घिघ्घी बंध गयी “थोड़ी देर में अक्ल ठिकाने लग जाएगी …यह दरवाजा कोई न खोलना” कह कर मिस्टर दद्दा खट-खट करते हुए जीने उतर कर चले गए …उनसे मेरे पापा, मम्मी सब डरते थे …पल भर के लिए घर में सन्नाटा छा गया …मैंने अपनी बुद्धि चातुर्य से काम लिया और “बुआ…बुआ” करके चिल्लाई। अस्सी वर्षीय बुआ विधवा थीं और मुझे बहुत ज्यादा मानती थीं |
बुआ मेरा दरवाजा पीटने लगीं और कहने लगीं “उमेश, खोलो इसका दरवाजा, छोटी सी बच्ची है, डर जाएगी” कह सुनकर उन्होने मुझे सकुशल बाहर निकलवा लिया। मैं बुआ के पैरों से चिपक कर खड़ी हो गई। घटना को इतने वर्ष बीत गए पर वो टमाटर जब भी याद आता है, मेरे मुॅंह का स्वाद बदल जाता है और मैं मुस्कराये बिना नहीं रह पाती।
स्वरचित
रश्मि लहर
लखनऊ, उत्तर प्रदेश