“शेर”
नज़्म क्या लिखूं उस महबूबा पर।
अल्फ़ाज़ जितने भी हों कम लगते हैं।
ज़िन्दगी में उस हसीं के आ जाने से।
कल अधूरे थे हम अब पूरे से लगते हैं।
नज़्म क्या लिखूं उस महबूबा पर।
अल्फ़ाज़ जितने भी हों कम लगते हैं।
ज़िन्दगी में उस हसीं के आ जाने से।
कल अधूरे थे हम अब पूरे से लगते हैं।