शीर्षक – वह दूब सी
शीर्षक – वह दूब सी
सुलगती दूब किस से कहे अपनी हृदय वेदना ?
किसको सुनाए अपनी करुण पुकार ?
वह तो निरंतर प्रतीक्षा करती है कि,
कभी तो गिरे उस पर भी सावन की बौछार ।
कोई तो जाने सावन में विरह की पीड़ा ,
कोई पपीहा कभी तो सुनाए तीज पर मल्हार ,
आंखों को गलीचा बनाकर राह तकती हुई ,
करती रही मूक बनकर जीवन पर्यंत इंतजार ।
वह दूब सी सूर्य की तपन में सूखती हुई ,
गूंथती रही नयनों से मिलन की बेला के लिए हार।
एक नई जिंदगी की उम्मीद लिए इस सावन में ,
हर रोज बदलती रही ख्वाहिशों के आकार ।
अपने अंक में मिट्टी की सौंधी सी महक लिए ,
आसमां में झांकती करने लगी श्रृंगार,
रात से मांगकर कुछ लम्हों की मौहलत ,
करती रही रात भर चंद्रमा से मनुहार।
हां वह दूब सी नेह के मेह की प्रतीक्षा में ,
जन्मी है और फिर मिटी है ना जाने कितनी बार ?
मंजू सागर
गाजियाबाद