शीर्षक बेटी
शीर्षक –स्वैच्छिक- बेटी*
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बेटी ही आज बेटा बनी हैं।
जीवन में कदमों से शान हैं।
हम धन की कामना करते हैं।
बेटी ही तो लक्ष्मी स्वरुप हैं।
मन हमारा स्वार्थ रखता हैं।
जिंदगी में बेटी से भेद रखते हैं।
सच तो बेटी दो घर बसाती हैं।
जन्मदायिनी और ईश्वर होती हैं।
बेटी ही तो सेवा भाव रखती हैं।
मन भावों में माता-पिता बसते हैं।
हां सब पराए घर की कहते हैं।
सदा दो घरों को सहयोग देती हैं।
बेटी ही सच एक मान सम्मान होती हैं।
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नीरज अग्रवाल चंदौसी उ.प्र