शीर्षक-“बीत जाए न ये रैना”(16)
क्या खोया या क्या पाया की बेड़ियों को पार कर,
यूं ही हंसते-खिलखिलाते ये कहाँ आ गए हम,
बंद पिंजरे की खिड़कियों से निकलकर छा गए जंगलों की फ़िज़ाओं पर,
सुन री सखी इन पहाड़ियों की छांव में तेरे संग मिला मन को बेहद सुकून,
सामाजिक कश्तियों के बहाव में ताल से ताल मिलाकर बहते हुए नतीजतन आखिर हमने भी मन में ठान ही लिया आजादी का जुनून,
बरसो हुए रे दिल खोलकर मुस्कुराए हुए,
जीने के लिए इस संजीवनी को भुलाए हुए,
कुछ तो लोग कहेंगे,लोगों का काम ही कहना
छोड़ो बेकार की बातों में,बीत जाए न ये रैना||
आरती अयाचित
स्वरचित एवं मौलिक
भोपाल