शीर्षक ढूँढ़ता हूँ- – –
शब्दों से भरी इस दुनिया में
शीर्षक ढूढ़ता हूँ
कभी सोचता हूँ
यह चुनिंदा है;
पर उसी क्षण लगता है
यह ठीक नहीं
कुछ दिनों में फीका पड़ जाएगा
इसका रंग उड़ जाएगा – —
शब्दों का एक विस्तृत जाल है
और सोच परिंदा है
आदमी सोचता है
सोचता जाता है- – –
न सोचे तो पता नहीं क्या होगा!
सोच रहा है— जो कुछ भी हो!
शायद इसीलिए जिंदा है
कोई किसी की तारीफ में खुश है
किसी का व्यवसाय निंदा है
एक सहज प्रयास है
मिले कोई ऐसा शीर्षक
जिसमें परमानुभूति हो
मेरी नहीं- – –
शब्दों की विभूति हो।
मुकेश कुमार बड़गैयाँ