शीर्षक-“इरादा”(12)
इस बार तो दोस्तों,
कुछ रूठों को मनाने का इरादा था,
उनसे जो किया पहले,निभाना वो वादा था,
मगर जो अपनी ही राह से भटकें हों,
और आंखों पर पड़ा हो परदा,
वहाँ क्या काम आएगा नेक इरादा,
उसका तो फिर बन जाएगा फालूदा,
इसीलिए तो अभी हमसे ये ना पूछो,
मंज़िल की दिशा कहाँ है,
हमने तो सिर्फ नेक राह पर चलने का
इरादा किया है,
न हारें हैं अभी तक,और नही हारेंगे कभी,
यकीन है स्वयं पर,
और ये स्वयं से किया हुआ वादा है,
किसी और से नहीं
“आखिर मिलती है मंज़िल,
जिनके इरादे नेक होते हैं”
आरती अयाचित
स्वरचित एवं मौलिक
भोपाल