शीर्षक:मैं चाहती हूँ
मैं एक होना चाहती हूँ
जैसे आकाश में चांद एक
अनेक तारो के बीच चमकता हैं
वैसे ही अपनी लेखनी को
देखना चाहती हूँ चमकते हुए।
मैं चुपचाप सी होना चाहती हूँ
जैसे लेखनी से शब्द कविता रूप लेते हैं
वैसे ही अपने को देखना चाहती हूँ
देखना चाहती हूँ शब्दो में अपने को
बन जाना चाहती हूँ खुद में कविता।
मैं खुश होना चाहती हूँ
कुछ दिलखुश सी रहना चाहती हूँ
सब से प्रेम करूँ लिखूं ये ही
पल पल ये ही बस चाहती हूँ
अपनी कविताओं में प्रेम चाहती हूँ।
मैं कुछ चुपचाप सी होना चाहती हूँ
कभी इजहार सा करती हूँ
कभी इंकार सा चाहती हूँ
कभी अपनी कविता के लिए
आपका भरपूर प्यार चाहती हूँ।
मैं बिखेरू मुस्कान सी हर पल
कभी लिखूं मुस्कान सी कविता
कभी चुभते से लिख दूं शब्द
कभी खामोशी मैं ले लूं
पढ़ कर कविता मुस्कान फैलाओ।