शीर्षक:बिल्कुल हूबहू
१३-
मेरे शब्द-शब्द में
झलकते हो अदृश्य छवि बन
शब्द जो कहते हैं मेरी व्यथा
जो छू जाते हैं मेरे दर्द को हूबहू
मेरे अंतर्मन की काल्पनिक व्यथा को
शब्दों से मिल जाती हैं एक आकृति सी
और तुम समझ जाते हो उसी से
मेरे अंतर्मन की पीड़ा को
मेरे मन में उकरित भाव को
मेरे अंतर्मन में चल रही भावों भरी
मंदागिनी की असीमित लहरों के उछाल को
शायद समझ सकते हो तुम
शब्द रूप की लहरियों सी संवेदनशीलता
शब्द ही तो हैं जो समझते हैं मुझे
पूर्ण रूपेण हूबहू जैसी मैं हूँ वैसी ही
बिल्कुल वैसी ही
===डॉ मंजु सैनी===