शीर्षक:निर्झर शब्दलहर
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आँसुओं से निर्झर अश्रु श्रँखला निर्बाध बह चली
मानों दोनो के मध्य संधि अनुबंध करार बना चली
अविरल अश्रु धारा मानों तटीबन्ध तोड़ बस चली
वो मन मे दबी यादों की परत मानो आज टूट चली
न जाने क्यो आज फिर यादों में मैं भी उतर चली
अथाह पीड़ा सहती हुई फिर घनघोर यादे उतर चली
यादों को जितना सहेजती तड़फ उतनी ही बढ़ चली
भूली बिसरी यादों में आज फिर से मैं बस चली
निर्झर शब्दलहर आज फिर मनःपटल पर बह चली
शरीर शीर्ण हो रहा पर यादे आज फिर जवां हो चली
आज भी अनुराग में स्वयं को विलिप्त देख मैं चली
अवचेतन मन में फिर से यादें जाग्रत सी हो चली
ह्र्दयांश में मानों आज भी विछोह व्यार बह चली
यादों में विलिप्त स्मृतियाँ चेतन मन में उठ चली
आँखों से अश्रु रूप में टीस की पीड़ा बह चली
दर्द मानों कलम से निर्झर शब्दलहर बन चली
यादों की झुलस में मानों चेतना निस्पृह हो चली
अस्तित्व में मानों सब तरफ अनुतृप्त बेचनी चली
मन मे विराग की व्यार की हिलोरें सी उठ चली
आज फिर से कलम मेरी निर्झर शब्दलहर बहा चली
डॉ मंजु सैनी
गाज़ियाबाद