शीर्षक:आवाज लेखनी की
२१-
मेरी लेखनी प्रेम लिखती है
औऱ कभी कभी विद्रोह करती है
कभी कभी सुंदर से स्वप्न बुनती है
कभी कभी जल सी द्रवित बहती है
ढलती हैं कभी मेरे से रंग में
औऱ मुझ जैसी सी लगती है
ये देखो मेरी लेखनी की आवाज़ है
बस यूँ ही बेबाक़ चलती सी है।
खुश करे ये दिल को कभी कभी
मन मे आक्रोश भरती कभी कभी
सत्य का आइना दिखा दे कभी कभी
चकित करती भ्रमित करती कभी कभी
तेज इसमें सूर्य समान सा कभी कभी
अंधकार भी लिखती बेबाक कभी कभी
ये देखो मेरी लेखनी की आवाज है
बस यूँ ही बेबाक़ चलती सी है।
यौवन भी लिखती नारी का कभी कभी
गाथा भी वीरों की लिखती कभी कभी
बदल देती है सत्ता को कभी कभी
पर जब कागज़ पर चलती कभी कभी
तो इतिहास रच देती है नए नए कभी कभी
ये विनाश भी लिखती है कभी कभी
ये देखो मेरी लेखनी की आवाज़ है
बस यूँ ही बेबाक़ चलती सी है।
मेरी लेखनी तो है सच्ची इस जहान में
जो मेरे दिल की सच्ची बात ही लिखती है
समाज की सच्ची घटनाये ही लिखती है
जो ना किसी के भय में रहती बस सच लिखती है
लेखनी तब तक वो बड़े काम की सच्चाई जब तक लिखे
ना वो पैसों में बिके तब तक ही सच्ची बात लिखे
ये देखो मेरी लेखनी की आवाज़ है
बस यूँ ही बेबाक़ चलती सी है।
डॉ मंजु