शीर्षक:अकेली कहाँ
११-
आत्मीयता से भरी हाथों में प्रेम की
प्रगाढ़ लकीरें मेरी नियति को
मानों प्रदर्शित कर रहीं हों
शब्द भी मानों आज निर्बंध से हो रहें हैं बोलने को
न जानें क्यों..❓
अरमान अपनी उड़ान को तैयार हो रहें हैं
रह रह वही व्यतीत क्षण पलट कर आते हैं
स्वयं को ही मानों आस्वस्त करते दिखाई देते हैं
जीवन वहन के लिए वहीं यादों की तिजोरी खुलती हैं
न जानें क्यों..❓
आज मानों बीते क्षण बोझिल से हो रहे हों
कितने अरमानों के बोझ का वहन करना होगा
कमर तोड़ यादों का सिलसिला यूँ ही
वक्त वेवक्त चलता जा रहा है निर्बाध
न जानें क्यों..❓
यादों जी झंकार सुनाई देती हैं अकेले में
पुनः हरी हो जाती हैं बीती जिंदगी यूँ ही
यादें मानों लकवाग्रस्त हुई मेरी वहीं अब
वक्त बेवक्त टीसती हैं यादों की पीड़ा रूप में
न जानें क्यों..❓
संघर्ष ही मानों जीवन का दूसरा रूप हैं
जो समय के साथ कभी खत्म ही नहीं होता
यादों के पिटारे से स्वयं अलग भी नहीं होता
बस इरादों वादों तक कुछ पल भुलाया जाता हैं
न जानें क्यों..❓
पर यादों अनवरतता बनी रहती हैं यूँ ही
रूह हताश होती हैं पर निवारण नहीं होता कोई
शरीर में मुर्दा यादें मानों पुनर्जन्म ले लेती हैं
हर बार बार-बार यादों को उफ़ानती हैं
न जानें क्यों..❓
साथ होती हैं यादे सभी के साथ
शरीर यात्रा पूर्ण होने तक दृढ़ता से
यादों की हठधर्मिता यूँ हो रहती हैं बरकरार
बार-बार यादों की टीस देने को ततपर
न जानें क्यों..❓
डॉ मंजु सैनी
गाज़ियाबाद