‘शीतलहर’
‘शीतलहर’
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मौसम बदला, ठिठुरा शहर;
फिर से आई है, ‘शीतलहर’;
पूरा दिन हो या हो, दोपहर;
दिखाए मौसम अपना कहर;
कोई मत जाना, इधर-उधर;
फिर से आई है, ‘शीतलहर’।
गरीबों को ही , अब सजा है;
महलों में ही , मिले मजा है;
कष्ट उसे,जिनके नही हैं घर;
ठिठुरता बदन, ,जाए सिहर;
फिर से आई है, ‘शीतलहर’।
दीन दुखियों पे आफत आई;
मौसम बन गई, जैसे कसाई;
ठंड ने उसको है, कपकपांई;
कहां मिले , उसे कोई रजाई;
ठंडी पवन, उगले अब जहर;
फिर से जो आई,’शीतलहर’।
कुहासे से भी ढक गई धरती;
बाग-बगीचा, बने अब परती;
खेत-खलिहान में पड़ा पाला;
हाट बाजारों में,लटका ताला;
चोरों की चांदी दिखे,हर पहर;
फिर से आई जो, ‘शीतलहर’।
हर शीत में, लगे बहुत जाड़ा;
मानव या पशु-पक्षी हो,सारा;
सब ही तो बन गए हैं,बेचारा;
चाहते सब,सूरज का सहारा;
मगर प्रकृति की है,यही डगर;
माघ गई,पूस आए शीतलहर।
शीतलहर सताती दुखियों को;
सुख मिलता,उन सखियों को;
लक्ष्मी रहती है , जिनके साथ;
जीवन बिताना मुश्किल होता;
हर दीनों को , दिन हो या रात;
सबकी दिनचर्या, गई है ठहर;
फिर जो आई है , ‘शीतलहर’।
बहुत है,इस मौसम में पाबंदी;
स्कूल-कॉलेज भी, होती बंदी;
जब आती, ‘शीतलहरी’ ठंडी;
सज गई,गर्म कपड़ों की मंडी;
बिकता, स्वेटर,शॉल,मफलर;
जब भी आता है, ‘शीतलहर’।
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स्वरचित सह मौलिक;
..…✍️ पंकज ‘कर्ण’
…………कटिहार।।