शीतलहर
धूप में भी कहर देखो,
पूस का शीतलहर देखो |
माघ अभी बाकी है,
घाघ अभी बाकी है |
शीतलहरों का ,
बाघ अभी बाकी है |
सुबह होती अंगड़ाईयों से,
चाय की चुस्कीयों पे ,
शाम हो जाती है |
कल्पित हर काम ,
शेष रह जाती है |
सून्न कर देती हाथों को,
वो रात अभी बाकी है |
प्रभावहीन होती ,
आग अभी बाकी है |
माघ अभी बाकी है,
घाघ अभी बाकी है |
–पवन कुमार मिश्र’अभिकर्ष’