शीतलहर (नील पदम् के दोहे)
शीत लहर कितनी बढ़ी, हुआ नहीं आभास,
ये जादू तब तक मगर, जबतक तुम मेरे पास ।
शीतलहर की शीत से, विचलित मन घबराय,
इस सर्दी में आप क्यों, रूठे हमसे जाय ।
शीतलहर से हो गए, सर्द सभी अनुबन्ध,
जाने क्या-क्या बह गया, जब टूटे तटबन्ध ।
शीतलहर है चल रही, रखियो कोयला पास,
जैसी जितनी ठण्ड हो, उतना लीजो ताप ।
लकड़ी जल कोयला बनी, कोयला बन गया राख़ ,
अब तो आलू निकाल ले, हो गए होंगे ख़ाक ।
शीतलहर में ओढ़ लो, कान ढांक कर लिहाफ़,
मारो चाय की चुस्कियाँ, और पढ़ते रहो किताब।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”