शिशु और चंद्रमा
एक नन्हा शिशु सोया था,
माँ के आँचल में खोया था ।
स्व चेतना में भरकर उमंग,
खेल रहा था नव उदित चंद्रमा के संग ।
अनायास पड़ोसन द्वार लगाई,
शिशु सम्मुख अंधियारी छाई ।
बालक रह गया निःशब्द दंग ,
विखर गया चंद्रमा का शीतल रंग ।
पूछा बच्चा अचंभित होकर माँ से,
छुप गया चाँद बता कहाँ यहाँ से ।
स्मिता लिए माँ बोली, चंद्र है प्रिय नभ के पास ,
है जहाँ उसका स्थित स्थान निवास ।
उत्सुक हो शिशु पूछा, क्यों चाँद गया आकाश,
कह कब आएगा, अब मेरे पास ।
माँ बाल चंचलता न जान सकी,
शिशु के बातों बातों में कह गई ।
क्यों रोता है मेरे लाल,
शशि होगा सदा तेरे ही भाल।
शिशु नभ से मांगा चाँद-तारों कर विनय अनेक,
क्रंदित स्वर , मृदुल भाव संग बांहें फेंक ।
जब आया नहीं चंद्रमा बालक के पास,
पुलकित,हर्षित अश्रुयुक्त शिशु हुआ निराश ।
नन्हे कर से माँ की तंद्रा भंग किया,
निष्ठुर नभ में छाए चाँद तारों को दिखा दिया ।
स्नेहमयी ममता से हठ कर बैठा बालक,
ला दे चंद्रमा यदि तू है मेरे पालक ।
जननी सम्मुख विकट समस्या उमड़ पड़ी,
बोली, है अंधियारी नभ में अभी भरी पड़ी ।
कल दिवा प्रकाश जब छाएगा,
चंद्रमा स्व रथ सवार अंक तेरे तब आएगा ।
थप-थप कर माँ सुला दिया नन्हे बालक को,
स्वप्न लोक के आँगन में भूला दिया नन्हे बालक को ।
उमा झा