शिव लंकेश संवाद
शिव लंकेश संवाद
साधना उपरांत जब भोले, अपना नयन खोले,
सम्मुख देख बंदी को, शिव नंदी से बोले।
“कौन है ये, किस हेतु यहाँ इसे लाए हो,
इस अगम क्षेत्र में मानव कैसे पाए हो?”
नंदी ने झुक कर कहा – “देव, वन में घूम रहा था,
पूछा जब उद्देश्य तो, क्रोध में झूम रहा था।
बहु विधि समझाया, किंतु कुछ असर नहीं पड़ा,
विवश हो प्रभु इसे, आपके सम्मुख लाना पड़ा।”
देख उस दृश्य मनहर, रावण बहुत चकित हुआ,
शंभु की भंगिमा पर वह और अधिक मोहित हुआ।
बलौन्मत होकर बोला – “हे देव, मुझको लड़ना है,
कौन है श्रेष्ठ योद्धा, इसका निर्णय करना है।”
रावण की वाणी सुन शिव जोर से हँसने लगे,
उसके गर्व और वीरता को भीतर-भीतर परखने लगे।
फिर बोले महादेव – “तेरे शौर्य से प्रसन्न हूँ मैं,
पर तेरी मूढ़ता से भी विस्मित और विषण्ण हूँ मैं।
पहले परिचय दो अपना, आने का कारण बता,
युद्ध का तुझे क्यों मोह? पहले यह मुझको समझा।”
तब कहा रावण ने शिव से – “लंकापति, रावण हूँ,
मुनि विश्रवा का पुत्र, रक्ष संस्कृति का पालक हूँ।”
शिव बोले – “युद्धाभिलाषा तुझे पूरी कर दूँगा,
परंतु अतिथि है तू, आश्रम धर्म का मान करूँगा।
नाम सुना है तेरा, जब कुबेर यहाँ आए थे,
तेरी अवज्ञा की बातें भी वह मुझे बतलाए थे।”
रावण बोला – “हे देव, क्षमा करें, विश्राम न मुझे भाता है,
बिना प्राप्ति के सिद्धि, यह जीवन व्यर्थ हो जाता है।
जहाँ तक कुबेर की बात, मैं विस्तार से बताऊँगा,
किया जो अन्याय, उसका भेद कभी बताऊँगा।”
फिर शिव ने मुस्काकर डमरू की ध्वनि बजाई,
रावण को युद्ध हेतु हुंकार की ललकार सुनाई।
डमरू की गर्जना पर सब रुद्र, यक्ष, देव आए,
रुद्र और रावण का युद्ध देख, सब मंत्रमुग्धता पाए।
युद्ध भयानक हुआ, गंधर्व, यक्ष, देव साक्षी बने,
रावण के हर प्रहार को शिव सरलता से काटते रहे।
जैसे गुरु सिखाते हो किसी बालक को युद्ध कला,
औघड़दानी शिव रावण को देते शिक्षा हर बला।
देव-दैत्य पूजित शिव पर रावण परशु से वार करे,
शिव कभी प्रतिकार नहीं, केवल रक्षा में संहार करे।
यह देख लंकेश का मन अंदर से विचार किया
शिव नहीं प्रतिद्वंदी, इस भ्रम को अब नकार दिया।
फेंक परशु शिव चरणों में, वह घुटनों पर जा बैठा,
शिव की महिमा के सम्मुख रावण का सारा गर्व टूटा।
“मिलन हुआ परम प्रतापी देव से,” रावण ने कहा,
“करूँगा आजीवन वंदना, यह वचन मैं आज लिया।”
रावण बोला – “मुझ पर दया कीजिए, रावण तो दास है,
त्रिलोक में आप ही सर्वोच्च, देवों में आकाश है।”
शिव बोले – “कल्याणं ते भवतु, स्वीकार करो,
और यहाँ उपस्थित सबका भी आभार करो।”
शिव का वचन सुन, रावण हर्ष से नाच उठा,
गंधर्व, यक्ष, देव सभी हर्षध्वनि करने लगे।
युद्ध का भूत रावण के हृदय से उतर गया,
जो आया था युद्ध करने,शिव सेवा में रम गया।
स्व रचित मौलिक