शिव कुमारी भाग ११
चचेरी दीदी की शादी तय होनी थी। उनके लिए जब लड़का देखने झरिया गए, तो मैं भी गया था। बात पक्की करके जब ट्रेन से लौट रहे थे तो आद्रा स्टेशन पर ट्रेन कुछ देर रुकती थी।
ट्रेन का इंजिन बदला जाता था। जब ट्रेन दुबारा चलना शुरू हुई , तो जिस दिशा से हम आ रहे थे, ट्रेन वापस उसी दिशा की ओर चल पड़ी, मैं थोड़ा चिंतित हो रहा था, ताऊजी के साथ आये उनके खास दोस्त, मेरी परेशानी समझ कर मज़ाक मे बोल पड़े, कि हम लोग वापस झरिया लौट रहे है,
मुझे उदास पाकर फिर बोले ये ट्रेन थोड़ी सी आगे जाकर घूम जाएगी ,चिंता मत करो।
मैंने चैन की सांस ली। घर पहुंच कर बहनों ने मेरी भी राय ली कि जीजाजी कैसे लगे,
मैंने कहा ,बहुत अच्छे!!
मेरी त्वरित सकारात्मक टिप्पणी के पीछे, उनके द्वारा दिलवाई गयी , दो इलास्टिक की बेल्ट का भी हाथ रहा था, एक मैं पहने हुआ था और दूसरी जेब मे पड़ी थी।
ऐसे ही एक दिन किसी और के रिश्ते की बात हो रही थी , दादी उनको जानती थी, उनके मायके के पास वाले कस्बे से ताल्लुक रखते थे, लड़का अच्छा था,
पर दादी बोल पड़ी, वहाँ भूल कर भी रिश्ता मत करना, इनके दादा और पड़दादा को मैं जानती हूँ,
“रामर्या, बात बात म भेन बेटी तक को गैणो गूठी अडाणा राख देता”
(कमबख्त, बात बात मे अपनी बहन बेटियों के गहने तक गिरवी रख देते थे)
ये एक बात दादी के लिए काफी थी उनके बारे मे अपनी नकारात्मक राय बनाने मे।
उनका ये मानना था कि छोटी छोटी बातों मे कोई अपनी बहन बेटियों के अमानती गहने रेहन पर रख कर पैसे उधार लेता है क्या?
थोड़े कम मे गुजारा कर लो। परेशानी भी झेल लो पर गहनों को हाथ मत लगाओ और अमानत पर तो बिल्कुल भी नही।
गहने तो माँ बाप का दिया हुआ आशीर्वाद और सुरक्षा कवच हैं जो घोर विपत्ति आने पर ही काम आएंगे।
आज की गोल्ड लोन कंपनियों और क्रेडिट कार्ड के आम चलन को दादी बहुत गालियां देतीं।
चचेरी बहन की शादी अच्छे से हो गयी, दादी के एक भतीजे का बेटा भी उस शादी मे शरीक हुआ, जो उस वक़्त आसाम के किसी चाय बागान मे कार्यरत थे।
उनसे मिलकर दादी इतना खुश हुई कि घंटो अपने मायके के बारे मे खोजबीन लेती रही,
कभी खिलखिला उठती तो कभी रो पड़ती।
मैंने दादी को एक दो बार ही पीहर जाते देखा था, उन्हें अपने साथ किसी और को ले जाने की आवश्यकता नही थी, वो तो अकेले ही कहीं भी जाने मे सक्षम थी।
दिल्ली मे जाकर मुसाफिरखाने मे कितनी देर बैठना पड़ेगा, वहां से कब दूसरी ट्रेन मिलेगी, उन्हें सब पता था। स्टेशन पर कुली ज्यादा ज्ञान बांटने लगता, फिर उनसे गालियां खाकर ही चुप होता ,कि कैसी खतरनाक औरत से पाला पड़ा है,
उनके आगे चालाकी की कोई गुंजाइश नही थी। सफर के लिए दो तीन दिनों का खाना घर से ही बनवा के ले जाती थी।
फिर जब लौटती, तो माँ , ताईजी और आस पड़ोस की महिलायें उनके पाँव छूती, छूना क्या बाकायदा पिंडलियों तक ले जाकर उंगलियों से दबाना पड़ता तब जाकर उनको चैन मिलता।
आशीर्वाद के साथ ये इशारा भी होता कि शेरनी लौट आयी है, अनुपस्थिति मे जो किया सो किया, अब संभलने की जरूरत है।
एक दिन दादी से पूछ बैठा कि कोलकाता किस तरफ है, उन्होंने घर के पीछे वाले हिस्से की ओर इशारा कर दिया जिधर से सूरज रोज निकलता था।
मैं कोलकाता को अपने दिमाग के नक्शे मे उत्तर दिशा मे बसा चुका था क्योंकि रेलवे स्टेशन पश्चिम दिशा मे था और कोलकाता की ट्रेन आकर फिर उत्तर दिशा की ओर सीधी चली जाती थी।
अब सारा शहर नए सिरे से बसाना था , गंगा नदी भी नन्हे दिमाग में गलत दिशा मे बह रही थी।
मैं सिर्फ सोच रहा था दादी अगर थोड़ी पढ़ी लिखी होती तो फिर क्या होता?
उनके दिमाग मे जो भी था बिल्कुल साफ था किसी शक और असमंजस की कोई जगह नही थी।
एक दिन दादी, दादाजी के पास बैठकर अपने सभी जानने वालों के नाम, पते, जगह आदि को बोल बोल कर, झाड़ पोंछ कर करीने से फिर अपने दिमाग मे बैठा रही थी। दादाजी बीच बीच मे अपनी विशषज्ञों वाली राय दे रहे थे।
उनकी बात ध्यान से सुनकर नई सूचनाएं दिमाग मे भरती जा रही थी।
बीच बीच मे दादी उनकी जानकारी सुधार भी देती
“श्याणो थान ठाह कोनी” (आपको ये बात पता नही है)
” थे तो पुराणी बात कह्वो हो, फलानो तो अब बनारस रहण लागग्यो”
(आप तो पुरानी बात बता रहे है, फलाना तो अब बनारस रहने लग गया है)
दादी के ज्ञानकोष का ये भाग इस तरह नए संस्करण के साथ तैयार हो जाता । ये अभ्यास हर एक दो साल मे होता ही था।
राजस्थान से जब कभी , बही भाट/ब्रम्हभाट (वंशावली का ब्यौरा रखने वाले) आते तो दादी बहुत खुश होती, पहले तो वो उनकी जांच करती कि ये उनके वाले ही है तो?। एक बार आश्वस्त होने पर चाव से पूरे वंश का पीढ़ी दर पीढ़ी इतिहास सुनती, कौन कहाँ से आकर कहाँ बसा।
घर के नए सदस्यों का नाम पंजीकरण करवाती। फिर उनसे भजन वगैरह सुनती। विदा करते वक़्त दक्षिणा के साथ कपड़े भी देती थी और पूछ भी लेती कि अगली बार कब आना होगा?
पीढ़े पर बैठी बैठी बोल उठती
“देशां की तो बात ही और थी”
(अपने राजस्थान की तो बात ही और थी)
एक पल के लिए प्रवासी होने का दर्द भी झलक पड़ता।
फिर दूसरे ही क्षण बोलती
“जा रे छोरा, तेरी माँ न बोल चा बणा देसी”
(जाओ अपनी माँ को बोलो मेरे लिए चाय बना देगी)
ये सुनते ही मैं चौके की ओर दौड़ पड़ता। पीछे से दादी आवाज़ देती,
“रामर्या, भाज मना, पड़ ज्यासी”
( मूर्ख, दौड़ो मत गिर जाओगे)