शिल्पी दी
शिल्पी दी को पहली बार नज़दीक से हॉस्पिटल रोड में अपनी एक महिला मित्र के साथ टहलते देखा था। लंबी सी फ्रॉक पहने , दुबला पतला शरीर, गोरा रंग, धूप का चश्मा बालों पर चढ़ाए,बातें किये जा रही थी, चेहरे पर एक कशिश और विश्वास था।
हम लोग पास के खेल के मैदान की तरफ जा रहे थे। तभी उन्होंने अपनी महिला मित्र के भाई जो हमारे साथ था, उसको देख कर कहा,
“कि रे शोब शोमोय खेला दुला ना, पोढा शुना के कोरबे”
(सब समय खेल-कूद, पढ़ाई कौन करेगा)
दोस्त थोड़ा सकपकाया, फिर हल्के से मुस्कुरा कर हमारी ओर देखने लगा।
उनके, माता पिता का ताल्लुक कोलकाता के किसी उपनगरीय इलाके से था। पिता, गाँव में काफी दिनों से अच्छे सरकारी पद पर थे।
शिल्पी दी का पहनावा और परिष्कृत बांग्ला जो हमारे इलाके की बांग्ला भाषा से बिल्कुल जुदा थी, उन्हें एक दम अलग थलग और विस्मय का केंद्र बना चुका था।
ऐसे परिवार दस बीस और भी थे जो बाहर से नौकरी के सिलसिले में आकर यहाँ बस गए थे। इनको सुसंस्कृत की श्रेणी में रखा जाता था।
हमारी अपनी देशी जुबान थोड़ी गँवई सी अक्सर उन लोगो से बात करते समय, कमतरी की सोच लिए, हिचकिचाती थी।
सांस्कृतिक अनुष्ठानों में उन लोगों का ही वर्चस्व रहा करता था।
एक दिन मंच पर शिल्पी दी को एक गीत गाते हुए सुना।
“बोधु कोन आलो लागलो चोखे”
गीत के बोल तो बांग्ला में हाथ तंग होने के कारण ज्यादा पल्ले नहीं पड़े पर आवाज़ की मधुरता और संगीत दिल में उतर गए।संगीत की अपनी एक सत्ता होती है जो शाब्दिक अर्थो की बाधाओं को तोड़ कर सुनने वालों तक पहुँच ही जाती है।
गाँव के कुछ योग्य कुंवारे उनको अपना हाल सुनाने को तरसते रहते थे। वो बातचीत तो सबसे ही कर लेती थी, पर हाल सुनने की फुरसत शायद नहीं थी
बहुत सालों बाद कोलकाता में पढ़ाई करने के दौरान ,गाँव लौट रहा था तो ट्रेन के डब्बे में , एक परिचित दादा के साथ दिखी।
तब तक कोलकाता आकर मैं भी थोड़ी बहुत साफ सुथरी भाषा सीख गया था, हालांकि आज भी उच्चारण में थोड़ी जड़ता बनी रहती है और सामने वाले को तुरन्त बता देती है कि मातृ भाषा कुछ और ही है।
खैर, दादा ने मेरा परिचय करवाया तब पहली बार बातचीत हुई। हल्का फुल्का हँसी मजाक, खाना पीना चलता रहा।
वो पूछ बैठी कि कितने दिन रुकोगे, फिर बोली
“बाड़ी ते शोमोय पेले एक बार आशबे”(समय मिलने पर एक बार घर आना)
वो खुले विचारों की थी, किसी से बात करने में कोई हिचक नहीं दिखी, जल्दी घुलमिल जाती थीं।
मैं उनके घर जाने में थोड़ा हिचकिचा रहा था, पर इसकी वजह कुछ और ही थी,
पंद्रह वर्ष पहले मेरे तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले भांजे को अंकगणित में नकल कराते हुए उनके पिता ने मुझे पकड़ा था।
भांजे ने कसम दी थी कि मामा आज बचा लेना। घर की इज्जत का भी सवाल था और ये विचार भी कि कमबख्त फेल हो गया तो बहुत मार खायेगा। इसीलिए ये दुस्साहस कर बैठा था।
पुलिस स्टेशन के पास संतरियों के कमरे के बाहर सुनसान बरामदे में एक १० वर्ष के बच्चे को इधर उधर ताकते हुए प्रश्न पत्र हल करते हुए जब उन्होंने देखा तो उनको शक हुआ , उन्होंने डपटते हुए पूछा ,
मैंने डरते हुए सारी बात बतादी। फिर पूछा तुम किस कक्षा मैनवपढ़ते हो , मैंने कहा कि कक्षा पाँच में।
मेरा निरीह सा डरा हुआ मुँह देख कर उन्हें दया आ गई ।
मुझे जाने दिया और मुस्कुरा बैठे।
शिल्पी दी के घर जाते समय मैं आशंकित था कि उनके पिता ने पहचान कर अगर वो बात छेड़ दी तो फजीहत हो जाएगी।
वो ये घटना कब की भूल चुके थे, घर जाकर अच्छे माहौल में बातें हुईं।
अब जब कभी भी गाँव लौटता था तो उनसे एक बार जरूर मिल लेता था। मैंने उनको जब ये नकल वाला किस्सा सुनाया तो वो खिलखिला के बहुत देर तक हँसती रही।
फिर जब मैं उनसे काफी घुलमिल गया तो उन्होंने अपने एक सहपाठी के साथ असफल प्रेम की निशानी के तौर पर रखे हुए पुराने पत्र दिखाए। वो बहुत दुःखी दिख रही थी। एक नए छोर से फिर जिंदगी के धागों को सुलझाने की कोशिश में लगी हुई थी।
पिता अवकाश प्राप्त कर चुके थे और परिवार के साथ कोलकाता के पास अपने पैतृक निवास पर लौट गए थे।
शिल्पी दी गाँव में ही रुकी रही और पास के एक छोटे से गांव में शिक्षिका की नौकरी कर ली, उन्हें अब भी अपने टूटे रिश्ते के लौट आने की कहीं एक आस थी शायद।
जब वो पूरी तरह निराश हो गईं, तो फिर उसी पास के गाँव में एक किराए के घर में रहने चली गईं।
यहां उनके लिए, अब कड़वाहटों और टूटे विश्वास की किरचों के सिवाय कुछ शेष बचा भी नहीं था।
नए परिवेश में जाकर खुद को एक दम समेट कर रख छोड़ा था। बहुत कम बोलने लगी थी।
एक बार मेरे मित्र ने उनके बारे एक ओछी बात कह दी जो मुझे बहुत नागवार गुजरी। उसने कहा कि “ओ तो शुधु छेले टेस्ट कोरे बेड़ाए’
(वो तो सिर्फ लड़कों को चखती हुई घूमती रहती है)
मैंने कहा तुम उनको कितना जानते हो? किसी के आधुनिक तरह से रहने, सहज होकर घुलने मिलने से ,तुम सिर्फ कही सुनी बातों को सुनकर इस नतीजे पर पहुंच गए?
दुसरो के चरित्र हनन के समय साक्ष्य की जरूरत भी नहीं समझी जाती क्योंकि हमारे अपने पूर्वाग्रह यकीन दिलाने से नहीं चूकते कि “ऐसा ही है और यही सच है”।
और कहने का हक़ तो हमारी निजी स्वन्त्रता है ही।
यही बात किसी पुरुष के बारे में की जाती, तो कहा जाता
“भई , तुम्हारे क्या कहने, तुम्हारे तो ऐश चल रहे है आजकल, गुरु, हमें भी एक आध नुस्खे बात दो”
ये दो अलग अलग माप दंड थे जो मेरी नज़र में पुरुषों के मानसिक पिछड़ेपन की निशानी थी और ये सोच अब भी दिखती है।
इस सब से अनभिज्ञ वो अपनी जिंदगी से तालमेल बैठा ही रही थी कि,
एक दिन उनके स्कूल के संचालक, मिंटू दा, दिल के हाथों मजबूर होकर, सकुचाते हुए उनसे प्रणय निवेदन कर ही बैठे।
वो काफी दिनों तक असमंजस में दिखीं। मिंटू दा, उत्तर सुनने को अधीर हुए जा रहे थे, तो एक दिन स्कूल में लंच के समय उन्हें अपने आफिस में बुलाया और उनकी आँखों में देखते हुए कहा,
” खूब खाराब कोथा बोले फेलेछि ना कि”(बहुत गलत बात कह दी क्या मैंने)
शिल्पी दी ने उनको एकटक देखा फिर नजरें नीची करके सोचती रही। अंदर की बर्फ कहीं पिघल रही थी। आँखें भी अब नए स्वप्न देखना चाहती थी।
गाँव से कोलकाता लौटते वक्त ट्रेन में मिंटू दा और शिल्पी दी दिखे। जमाई बाबू ससुराल जा रहे थे।
उनकी शादी में आफिस के काम से बाहर जाने की वजह से शामिल नहीं हो पाया था।
मिंटू दा ने दीदी की ओर इशारा करके , मेरी ओर देखकर, चुटकी लेते हुए कहा,
“शेषे आमदेर ग्राम ई जीतलो” (अंत में हमारे गाँव की ही जीत हुई)
उनकी मुस्कुराहट ये कह रही थी,
(तुम्हारे गाँव के लड़कों ने चेष्टा तो बहुत की होगी पर किसी को इनका दिल जीतना नहीं आया)
साथ ही विगत के वर्षों में हमारी टीम से कई मैचों में हार का बदला भी उनका अब पूरा हो चुका था।
मैंने हँसते हुए कहा -“बधाई हो, इस जीत की आपको”
उन दोनों द्वारा संचालित स्कूल का नाम था “सेक्रेड हार्ट”(पवित्र हृदय)