शिरोमणि
‘शून्य से शिरोमणि ‘ प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में सर्वश्रेष्ठ की स्थिति तक पहुंचना चाहता है, यहां तक एक योगी भी अपने योग, तप व ध्यान में सर्वश्रेष्ठ तक पहुंचने की इच्छा रखता है। कुछ लोगो के लिए तो सर्वश्रेष्ठ तक पहुंचना ही उनकी जिजीविषा है। परन्तु प्रश्न यह है कि सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति का व्यक्तित्व कैसा होता है? उसने ऐसे कौन से कार्य किए कि आज वो सर्वश्रेष्ठ है? उसे सर्वश्रेष्ठ की पदवी कैसे प्राप्त हुई? वह शून्य से शिखर तक कैसे पहुचा? शून्य इसलिए क्योंकि वह गर्भ से तो शून्य मस्तिष्क लेकर ही आया था, यदि वह कुछ लेकर आया तो संस्कार व आचरण को उसे आनुवांशिक रूप से अपने माता पिता से मिले। परन्तु क्या संस्कार और आचरण एक व्यक्ति को सर्वश्रेष्ठ कहलाने के लिए पर्याप्त है? और यदि है तो कोई भी व्यक्ति अच्छे आचरण के आडम्बर मात्र से ही सर्वश्रेष्ठ की पदवी को प्राप्त कर सकता है। एक कारण तो यह है कि मनुष्य द्वारा अच्छा आचरण करना प्रायः स्वाभाविक समझा जाता है और दूसरा यह कि व्यक्ति को दूसरे के गुणों से ज्यादा उसके दोष दिखाई देते है। यह ध्यातव्य यह है कि आलोचनाएं भी मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है क्योंकि आलोचनाओं से व्यक्ति अपनी त्रुटियों में सुधार करके अपने चरित्र और व्यक्तित्व को और अधिक निखार सकता है। तीसरा पक्ष परिश्रम उपरोक्त दोनों से कुछ अधिक सुदृढ दिखाई देता है परन्तु यहां भी एक प्रश्न उठता है कि एक मनुष्य को कितना परिश्रम करना चाहिए? क्या परिश्रम करने कि भी कोई सीमा है?…. .. अमुख सीमा तक परिश्रम करने के बाद मनुष्य सर्वश्रेष्ठ कहला सकता है? उत्तर अत्यंत साधारण हैं एक मनुष्य को उतना परिश्रम करना चाहिए जितना वह कर सकता है। यदि एक पेड़ से पूछा जाए कि वह कितना लंबा हो सकता है ? तो उसका उत्तर यही होगा कि मै उतना लंबा हो सकता हूं जितना मै हो सकता हूं, मै उतना गहरा हो सकता हूं जितनी मेरी जड़े धरती के अंदर जा सकती है अर्थात् अधिकतम । यदि दूध में मक्खी पड़ जाए तो दूध को फेंक दिया जाता है किन्तु यदि घृत में मक्खी पड़ जाए तो घृत को नहीं अपितु मक्खी को उससे निकालकर फेंक दिया जाता है जबकि दूध के बिना घृत का अस्तित्व भी नहीं था। करना तपना। कोई भी व्यक्ति जन्म या जाती से श्रेष्ठ नहीं होता अपितु वह अपने कर्म से श्रेष्ठ होता है। किन्तु परिश्रम ही सर्वश्रेष्ठ कहलाने कि कुंजी है, यह तर्क न्यायसंगत नहीं जान पड़ता क्योंकि एक डाकू भी दूसरों को लूटने के लिए अथक प्रयत्न करता है परन्तु उसमें संस्कार व आचरण का अभाव है अतः वह सर्वश्रेष्ठ नहीं कहलाता । एक मजदूर सूर्य उदय से अस्त तक कठिन परिश्रम करता है परन्तु वह सर्वश्रेष्ठ नहीं है क्योंकि वह शिक्षाहिन है। शिक्षा इतना व्यापक शब्द है कि उसके अंतर्गत संस्कार व आचरण समाहित हो जाते है। तदपी शिक्षा व परिश्रम को सर्वश्रेष्ठ कहलाने का रहस्य नहीं समझा जा सकता क्योंकि एक विद्वान व्यक्ति को अपने ज्ञान पे अहंकार हो सकता है और यह भी आवश्यक नहीं कि उसमें आसक्ति का सर्वथा अभाव है हो। इस कारण प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति में संस्कार व आचरण विकसित होना संभव नहीं है। प्राय: संस्कार व आचरण से चरित्र निर्माण होता है। अत: यदि संस्कार व आचरण को सम्मिलित रूप से चरित्र की संज्ञा दे तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। चरित्र के साथ साथ स्थिरबुद्धि होना भी आवश्यक है। एक व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ बनने के लिए सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति का आचरण करता है।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरा जन: ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।।( गीता/अ°३/श°२१)
परन्तु वह इस बात को महत्वपूर्ण नहीं समझता कि सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति का व्यक्तित्व कैसा है? यदि एक विद्यार्थी मात्र परीक्षा में उत्तीर्ण होने के पढ़ता है तब भी उसे प्रथम आने को लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए क्योंकि इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम विद्यार्थी यह विचार करेगा को प्रथम आने के लिए मुझे कैसे पढ़ना होगा, कैसा बनना होगा और लक्ष्य प्राप्ति के इस संघर्ष मै वह जो बन जाएगा वह महत्वपूर्ण है।
बात यदि स्थिरबुद्धि कि करे तो प्राय: लोग यही विचारते है कि बुद्धि का स्थिर होना क्या है?
* वास्तव में दु: खो कि प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखो की प्राप्ति होने पर को सर्वथा नि: स्पृहा है तथा जिसमे राग, भय, क्रोध नष्ट हो गए है तथा जिसने अपनी इंद्रियों को वश में कर लिया है क्योंकि विषयों का चिंतन करनेवाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों कि कामना उत्पन्न होती है, कामना मै विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है और क्रोध से अत्यंत मूढ़ भाव उत्पन्न होता है। मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश होने से वह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है *
अहंकारी व्यक्ति का तो इससे भी बुरा हाल होता है क्योंकि अहंकारी व्यक्ति मे अपने कार्य को ना दिखाकर अपने को दिखाने कि प्रवृत्ति होती है। उसकी ‘ मुझे जानो ‘ यही प्रवृत्ति ही उसे गिराती है। चार शराबियों को एक स्थान पर एकत्रित हुए सभी लोगो ने देखा होगा परन्तु चार विद्वानों को एक स्थान पर एकत्रित हुए शायद ही किसी ने देखा होगा क्योंकि सम्मान प्रत्येक व्यक्ति अकेले ग्रहण करना चाहता है और अपमान सब मिलकर वहन करना चाहते है। समाज में तीन प्रकार की विचारधारा के लोग रहते हैं ।प्रथम
वो जो शून्य से शिरोमणि बनना चाहते हैं, दूसरे वो जो स्वयं को शून्य होना स्वीकार करते है, तीसरे वो को यह मानते है को संसार में कोई भी व्यक्ति शिरोमणि नहीं है यदि कोई है तो वो मनुष्य कि नहीं अपितु ईश्वर की श्रेणी में आता है।
इसमें से प्रथम श्रेणी का व्यक्ति आजीवन अनवरत प्रयत्न करता है सर्वश्रेष्ठ तक पहुंचने के लिए। दूसरी श्रेणी का व्यक्ति स्वयं को शून्य बताता है और वह शून्य को ही शिरोमणि सिद्ध करने के लिए अनेक प्रकार के तर्क देता है , यह उसकी अज्ञानी और अविवेकी होने की पहचान है। तीसरी श्रेणी के व्यक्तियों के लिए सर्वश्रेष्ठ नाम का कोई महत्व नहीं है क्योंकि उनका मानना है कि इस संसार में किसी भी व्यक्ति मे इतनी क्षमता नहीं है कि वह सर्वश्रेष्ठ कहला सके। प्राय: प्रत्येक व्यक्ति मे गुण के साथ साथ कुछ दोष भी विद्यमान रहते है। वे ‘ गलती मानवीय है ‘ इस उक्ति के समर्थक होते है अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति से कुछ ना कुछ गलतियां अवश्य होती है ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ नहीं कहला सकता।
इसके अतिरिक्त आत्मदर्शन से भी व्यक्ति शिखर को प्राप्त कर सकता है। क्योंकि आत्मा ही अवध्य, अच्छेद्य , अदाह्य, अक्लेय, अशोष्य, अचल, अजन्मा, अव्यक्त, अचिन्तय, सत्, शाशवत, सनातन, सर्वव्यापी, नित्य, विकाररहित व पुरातन है आत्मदर्शन से ही व्यक्ति को आनन्द की प्राप्ति होती है। आनंद अर्थात् सुख की अंतिम सीमा।
कुछ भी हो, ” शून्य से शिरोमणि ” ही सृष्टिचक्र और सृष्टिविकास का आधार है । ।