शिखर ब्रह्म पर सबका हक है
शिखर ब्रह्म पर सबका हक है
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ऋषि गोत्रीय चंद मांसाहारी ,
विप्र महान तन जनेऊधारी।
वेद कर्म का मान जो भूला ,
झूठ सत्य का ज्ञान वो भूला ।
कहता स्वयं को शक्ति उपासक,
पर कर्म से लगता यज्ञ विध्वंसक।
कुछ समझ नहीं,उसे जब आता है,
फिर पीट-पीट कर छाती अपनी,
वो रोज-रोज पगलाता है ।
अत्याचारी पर सम्मान दिखाता,
धर्मनिष्ठ को अपमानित करता।
नृप सुविज्ञ को नित्य गाली पढ़ता,
रंगा बिल्ला कहकर उसे बुलाता ।
वामी कामी जाल में फँसकर
धर्मच्युत में निज जाति ढूंढता।
कुछ समझ नहीं,उसे जब आता है,
फिर पीट-पीट कर,छाती अपनी,
वो रोज-रोज पगलाता है ।
चोटी और जनेऊ मात्र से ही कोई
वेद मर्मज्ञ और प्रकाण्ड नहीं है।
शिखर ब्रह्म पर सबका हक है
चाहे पिछड़ा या वो दलित है।
स्वीकार करो तुम दिल से सबको,
निज जाति अहं क्यों दिखलाता है।
ईर्ष्या द्वेष बीज को मन में रखकर,
क्यों रोज रोज पगलाता है…?
मौलिक और स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – २३ /०४ /२०२३
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विक्रम संवत २०८०
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