शिकायत
ज़िंदगी के धूप छाँव के संग में बढ़े,
मुश्किल हालातों में नही पीछे हटे,
दुख सुख दोनों को स्वीकारें सदा,
फिर बेवज़ह मन में ईर्ष्या क्यों पले।
अपनेपन की देख ढहती टूटती दीवारें,
जंग जिंदगी की बिना लड़े हम हारे,
अना बेवज़ह की जो मन में है उपजे,
शिकायत क्यों न हो कैसे स्वयं सँवारे।
रिश्तों के नाम पर करते जो धोखा,
शिकायत यही की क्यों किसी ने रोका,
कानून का जो करते रहते दुरुपयोग,
उनको कैसे मिला ऐसा करने का मौका।
स्वतंत्रता और स्वच्छन्दता की लड़ाई,
आधुनिकता के नाम पर संस्कार भुलाई
शिकायत यही हर बार दिल में उठती,
गलत का खामियाजा सही ने की भरपाई।