*शास्त्री जीः एक आदर्श शिक्षक*
शास्त्री जीः एक आदर्श शिक्षक
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शास्त्री जी सब प्रकार से एक आदर्श शिक्षक थे। आदर्श शिक्षक के सारे गुण उनमें थे। वह हिन्दी के अध्यापक थे और अपने विषय में उन्हें विशेषज्ञता प्राप्त थी। उनका हिन्दी उच्चारण भी बहुत शुद्ध था। भाषा की तनिक भी अशुद्धता उन्हें नापसंद थी। वह भारतीय संस्कृति के प्रबल समर्थक थे। वह परम्परावादी थे और इस देश तथा संस्कृति के महान सनातन मूल्यों के प्रति उनके मन में गहरा आदर था। वह नैतिक तथा चारित्रिक मूल्यों के भंडार थे। उनका चरित्र उच्च कोटि का था। कोई भी दुर्गण अथवा व्यसन उनमें नहीं था। यह एक बड़ी बात है। हम एक ऐसे व्यक्ति से आदर्श शिक्षक होने की अपेक्षा नहीं कर सकते जो अपने विषय में तो निपुण हो किन्तु जिसका चरित्र अथवा जिसकी आदतें निम्न कोटि की हों।
शास्त्री जी का पूरा नाम राजेश चन्द्र दुबे था। कुछ लोग भले ही उन्हें दुबे जी के नाम से सम्बोधित करते हों, किन्तु उनके शिष्यों, प्रशंसकों और शुभचिन्तकों का विशाल वर्ग उन्हें शास्त्री जी ही कहता था और इसी नाम से उन्हें जानता था। शक्तिपुरम (डायमण्ड कालोनी) में अपने मकान पर जो पत्थर उन्होंने लगवाया था, उस पर भी शास्त्री भवन ही लिखा था। स्पष्ट है कि वह शास्त्री जी कहलाने तथा कहने में अच्छा महसूस करते थे।
शास्त्री जी का अध्यापकीय जीवन संभवतः सुन्दर लाल इण्टर कालेज से ही आरम्भ हुआ था तथा वह इसी विद्यालय से रिटायर भी हुए। विद्यालय में उनका बहुत आदर होता था और उन्हें बहुत सम्मान के साथ देखा जाता था। वह किसी विवाद में नहीं थे। उनकी साफ-सुधरी छवि थी। वह ईमानदार व्यक्ति थे और निजी तथा सार्वजनिक जीवन में शुचिता की स्थापना के पक्षधर थे। पूज्य पिताजी श्री रामप्रकाश सर्राफ उनका बहुत आदर करते थे तथा उनके परामर्श को बहुत मूल्यवान मानते थे।
वह हर साल होली मिलने हमारे घर आते थे। यह क्रम उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक पर स्नेह करते हुए पूज्य पिताजी की 2006 में मृत्यु के बाद भी बनाए रखा था । अन्तिम बार 2011 की होली पर जब वह आये तो बातों ही बातों में कहने लगे “मैनेजर साहब (अर्थात् रामप्रकाश जी )
का स्वभाव बिल्कुल अलग ही था। आज के परिवेश से नितान्त मिन्न। धन्य सुन्दरलाल पंक्ति का तुम्हें किस्सा पता होगा?” मैंने कहा “नहीं”।
तब वह कहने लगे कि मैंनेजर साहब एक गीत विद्यालय के सम्बन्ध में लिखवाना चाहते थे। उस समय रजा कालेज में कोई सज्जन थे, मैंने उनसे यह गीत लिखवाया था। मैनेजर साहब चाहते थे कि गीत ज्यादा लम्बा नहीं हो बल्कि छोटा हो और गाया जा सके। जब गीत बनकर आया तो उसमें धन्य रामप्रकाश तुमने कार्य यह सुन्दर किया लिखा था। मैनेजर साहब ने देखकर उसमें अपने नाम के स्थान पर काटकर सुन्दरलाल कर दिया। ज्यादा कहा कुछ नहीं। यह उनका ऐसा ही स्वभाव था।
शास्त्री जी आर्ट ऑफ लिविंग से भी जुड़े थे। उन्होंने इसका बेसिक कोर्स तथा एडवांस कोर्स दोनों किया था। एडवांस कोर्स चार या पांच दिन का था और उसमें दिन-रात हमारा साथ-साथ रहना हुआ था। एडवांस कोर्स के दौरान ही एक मजेदार घटना घटित हुई थी। हुआ यह कि हमारी टीचर वीणा मिश्रा जी ने हॉल में हम लोगों से पूछा कि नारद भक्ति सूत्र किस-किसने नहीं पढ़ी है। फिर उन्होंने कहा कि यह पुस्तक यहीं पर बिक्री के लिए उपलब्ध है, जो चाहे खरीद सकते हैं। मैंने झटपट आगे बढ़कर पुस्तक खरीद ली। जब मैं पुस्तक खरीद कर पीछे की ओर मुड़ा तो शास्त्रीजी ने इशारों से मुझसे कहा (क्योंकि हम लोगों का मौन था) कि मैं उनके लिए भी एक नारद भक्ति सूत्र खरीद लूँ। उन्होंने रुपये मुझे पकड़ा दिए। लेकिन पता नहीं फिर क्या गड़बड़ हुई कि किताबें खत्म हो गई और मैंने रुपये तो पुस्तक विक्रेताओं को दे दिए किन्तु शास्त्री जी के लिए किताब नहीं ले पाया। तब शास्त्री जी ने मुझसे बैठे-बैठे ही आवाज लगाकर पूछा कि “रवि! रुपयों का क्या हुआ? “तब जाकर मैंने रुपए वापस लेकर शास्त्रीजी को सौंपे। उसी समय बैठने के बाद मैंने अपनी किताब-नारद भक्ति सूत्र शास्त्री जी को पढ़ने के लिए दे दी। मैंने कागज पर लिखकर उनसे कहा “आप इसे रख लीजिए और पढ़कर जब चाहे मुझे वापस कर दीजिए। मैं बाद में पढ़ लुंगा।” शास्त्री जी संतुष्ट थे। करीब पन्द्रह दिन या एक महीने बाद उन्होंने वह पुस्तक मुझे वापस लौटाई-सफेद कागज का कवर चढ़ाकर तथा उस पर पुस्तक का नाम नारद भक्ति सूत्र लिखकर। वह नारद मक्ति सूत्र अभी भी मेरे पास शास्त्री जी के हाथ का लिखा हुआ कवर चढ़ी रखी है। उन्नीस सितम्बर 2011 को शास्त्री जी का देहान्त हो गया। उनकी असामयिक मृत्यु से उनके शिष्यों तथा प्रशंसकों को अपार दुख पहुंचा।
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लेखक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
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