शायरों की बस्ती
देखो कुछ शायर,
दर्द लिए जा रहे हैं कश्ती में |
चलो चलकर थोड़ी दर्द मिटाएं ,
आग लगा दें उनकी बस्ती में|
वो पागल ,हर पल लिखता रहता है
जंग पड़ी है उसकी मस्ती में |
कलम को अपनी मां बताता ,
क्या करेगा जीकर बस्ती में|
वो क्या खाक जीते हैं ज़िंदगी ,
कहां नाम आता है उनकी हस्ती में|
कहता है लिख लिख कर दुनिया बदलूंगा ,
जिसकी कोई पहचान ही नहीं है बस्ती में|
हम सा जिंदगी जियो ,
देखो कितना मजा है घर गृहस्ती में|
जवानी का हर सुख भोग रहा हूं फिर भी,
लोग पैर पूजते हैं बस्ती में|
शायर:
साल गुजर गए महबूब को देखे,
फिर भी जी रहा हूं मस्ती में|
हमसा है क्या तुम में से कोई,
जाकर ढूंढो अपनी…………| : आलोक(गीत)