शायरी सी कविता सी
शायरी सी कविता सी
अंबुज सी खिली हुई भोली सी चंचल सी
लकुटी सी काया पर जुल्फ घनी उपवन सी
कामिनी वह भोली सी सोम्य पथगामिनी है…
शायरी सी कविता सी स्नेह मृदु वाचनी है…
रमा राधा सीता सी मीरा अनसुईया लगे
मालती की खुशबू सी सूर की सवैया लगे
क्या कहूँ कौन है वो क्यूँ याद आती है
सोचता हूँ दिन रैन, चैन रिपु या साथिनी है…
दिल में धड़कती रहे अँखियों से ओझल है
कानों में वीणा धुन तन मन वोझिल है
शिशिर में कुहासे बाद भानु सी उदित हो
वरखा में अँधेरी रात तड़की यूं दामिनी है…
प्रातःकाल ऊषा सी मध्यान्ह तरु छाया
सायंकाल क्षितिज जैसे लालिमा में घिर आया
सुप्त तन में आँख खुली मावस की रात को
लगा शरद पूर्णिमा को खिल रही चाँदनी है…
भूख भी तो लगती नहीं, पानी है प्यास नहीं
नैनों ने देखी नहीं मिलने की आस नहीं
भारत तू पगला है कैसा भ्रम पाल लिया
तू है निरीह साज यह जटिल रागिनी है…..
भारतेन्द्र शर्मा
19.01.2021