शायद यही सच हो
पल में यहाॅं क्या से क्या हो गया
मानो जैसे सारा शहर ही सो गया
सेना विफल हुई भागा राष्ट्र प्रधान
हमलावरों से बचाने अपने प्राण
चारों ओर ही नंगा आतंक मचा है
सड़कें हुई सूनी हो गई गली वीरान
घर के सब दरवाजे खिड़कियां हैं बंद
केवल सिसकियाँ सुन रहा है कान
गोलियों की ताकत के बल पर
धर्म की आड़ में दिखलाते हैं शान
निर्दोष लोगों का हत्यारा बन कर
मानव मूल्यों को करते हैं लहूलुहान
उसकी बर्बरता और उल्टी सोच
आदिम जमाने की याद दिलाता है
बल प्रयोग कर सत्ता को छीन वह
स्वयं को धर्म का रक्षक बताता है
पुरुषों संग कदम मिला चलने वाली
नारी होने का दु:ख भोग रही है
हर क्षेत्र में निरंतर आगे बढ़ने वाली
आज अपनी किस्मत पर रो रही है
पता नहीं किस मिट्टी का बना है
विचार तो एकदम खून में सना है
भूल गया है शायद वह भी किसी
महिला की कोख में ही जना है
अशिक्षित बन महिला अब केवल
शायद भोग की ही वस्तु रह जाएगी
उनका वश चले तो कभी अपने
घर की चौखट भी नहीं लांघ पाएगी