शायद देखा नहीं उसने
चराग़-ए-आरज़ू
जलाये रखना,
उम्मीद आँधियों में
बनाये रखना।
अब क्या डरना
हालात की तल्ख़ियों से,
आ गया हमको
बुलंदियों का स्वाद चखना।
ठोकरें दे जाती हैं
जीने का शुऊर ,
कोई देख पाता है
कलियों का चटख़ना।
काट लेता है कोई शाख़
घर अपना बनाने को,
शायद देखा नहीं उसने
चिड़िया का बिलखना।
# रवीन्द्र सिंह यादव