शाम ढलते ही
3
शाम ढलते ढलते सूर्यास्त ले ही आयी,
हुआ था सवेरा पक्षियों की चहकन चली थी पुरवाई।
चहुँ दिशा उमंग उत्साह का हुआ था प्रादुर्भाव,
नयनरम्य इंगित करता प्रतिदिन जीवन का सार।
जीवन की तेज़ रफ़्तार में आशा का होता एकाकार,
अस्तगामी सूरज जगाता नई आस बदलते रंग भरकर।
जाते हुए भर जाता नीले स्वच्छ अम्बर में अनेकों रंग,
सतरंगी सुनहली पीले लाल ऊर्जावान दीप्तमान ढ़ंग।
हुआ ईश्वरीय सत्ता का आभास जब पड़ा चेहरे पर,
जीवन के बदलते हर रंग का एहसास करा अस्तगामी दिनकर।
भर दें हम भी आस पास सूर्यास्त सी प्रदीप्त आशावादिता,
अध्यात्मिकता का हो भान न हो केवल अवसर वादिता।
रोशन करता जहान को पहाड़ी के पीछे सरकते- सरकते,
देकर संदेश धैर्यशीलता का व पुनृमिलन का अहसास कराते-कराते।
डॉ दवीना अमर ठकराल ‘देविका’