शान्ति-प्रस्ताव
तुम्हारे, शान्ति के
समस्त प्रस्ताव
कहाँ, चले जाते हैं?
जब शहरों पर
बम बरसायें जाते हैं।
स्तनपान कराती,
माँओं के
स्तन
भाप बनकर
उड़ जाते हैं,
दीवारों की एकता
खंडित-खंडित हो जाती है,
सड़कों पर
तारकोल नहींं
लहू और शरीर के
चीथड़े
श्मशान की
बाट देखते रहते हैं;
शहर की ऑक्सीजन
धुएँ से रिश्तेदारी
जोड़ लेती है
और घूमने निकल पड़ती है
शहर को छोड़कर
आकाश में,
आकाश के नीचे
एक धुँधली चादर
बिछा दी जाती है।
शान्ति के प्रस्तावों पर
हिंसा, पेशाब करके
लौट जाती है—
बुद्धिजीवी
कुछ दिन चिंता करके
शान्ति प्रस्तावों में
संशोधन करने के लिए
बुलाते हैं
एक शिखर सम्मेलन
और बना देते हैं
नए प्रस्ताव;
अगली बार
फिर से कोई
सिरफिरा शासक
पेशाब कर देता है
इन प्रस्तावों पर—
यही क्रम
लगातार
चलता रहता है
और इसकी भेंट
चढ़ते रहते है
कुछ, मेरे जैसे।