कत्थई गुलाब,,, शेष अंतिम
शादी की तारीख़ पड़ गई, तैयारियाँ शुरू हो गईं।माँ की दिनचर्या और भी व्यस्त हो गई। वह और भी ज़्यादा काम करने लग गईं थी।
शादी के दिन निरंजना उससे लिपटकर बहुत रोई थी..
वह महज एक दोस्त भर नहीं थी उसकी, एक हिस्सा थी उसके वजूद का,एक टुकड़ा थी उसके दिल का, सुलेखा ने उसके आंसुओं को पोंछते हुए बड़े ही तटस्थ भाव से कहा था,
.. “अपना खयाल रखना… आती जाती रहना.”
सुलेखा विदा होकर ससुराल चली गई..मां उन दो व्यक्तियों के हास परिहास, बोलने बतियाने से जीवंत छोटे से घर में अकेली रह गईं.
वह सूनापन जो बेटी की विदाई के बाद घर के कोने-कोने में बोलता है,उसकी गूंज से ह्रदय फट सा जाता है.
शादी के बाद मेहमानों से भरा घर भी उजाड़ लगता है,बस एक बिटिया के चले जाने से….
धीरे-धीरे सब अपनी लय में आ जाता है.जीवन का सफर हम वैसे ही तय करने लगते हैं जैसे करते आ रहे थे.
सुलेखा का फोन मां के पास रोज ही आ जाता था एक बार,,, इसी शहर में होने के कारण वह आ भी जाती थी मिलने..
फिर धीरे-धीरे फोन कम हुआ,
मिलने आना भी.
माँ जब काम से वापस आती तो एक पल के लिए सुलेखा को दरवाजे या टेरिस पर खड़ा पाती मगर फिर यह भ्रम टूट जाता.
चाय बनाकर टेरिस पर जातीं तो कत्थई गुलाब को देखकर सुलेखा की याद आ जाती.
बहुत दिनों से ना उसकी छँटाई हुई है, ना रोपाई, कैसा मुरझा सा गया है…
फोन की घंटी बजी..मां दौड़कर फोन के पास गईं..फोन उठाया..
“मां….”
सुलेखा की आवाज में कुछ था जिसे उदासी कहते हैं.
आज मन किसी अनहोनी की कल्पना से डर गया था और वह सही था.
“मां,मैं इनके साथ दिल्ली जा रही हूं,,ट्रांसफर हो गया है,अब देखो,कब मिलना होता है..
एक बात पूछूं माँ
ससुराल वालों को बहू का मायके से रिश्ता रखना खलता क्यों है..यही वजह थी… मैं शादी नहीं करना चाहती थी..तुमने मेरे जीवन को कांटों से भर दिया मां.. यह लोग चाहते हैं मैं तुमसे ज्यादा रिश्ता ना रखूं…
ठीक भी है..
यह निर्णय भी तो तुम्हारा ही था…
ख्याल रखना अपना और मेरे कत्थई गुलाब का भी…
प्रणाम मां.”