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3 Nov 2016 · 1 min read

शाइरी काफ़ी नहीं सूरत बदलने के लिए

मंज़िले उल्फ़त तो है अरमाँ पिघलने के लिए
है नहीं गर कुछ तो बस इक राह चलने के लिए

बन्द कर आँखें इसी उम्मीद में बैठा हूँ मैं
कोई तो जज़्बा मचल उट्ठे निकलने के लिए

हैं हज़ारों लोग तो सूरज पे ही इल्ज़ाम क्यूँ
ख़ाक करने को ज़हाँ आतिश उगलने के लिए

ये ज़ुरूरी है के हो उम्दा ख़यालों पर अमल
शाइरी काफ़ी नहीं सूरत बदलने के लिए

और कितनी लानतें ग़ाफ़िल पे भेजी जाएँगी
आतिशे उल्फ़त में उसके यार जलने के लिए

-‘ग़ाफ़िल’

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